योग और योगशास्त्र 's ३७१ . हो जाती है कि इन बातोपर भी चलते-चलाते थोडा प्रकाश डाल दिया जाय। हम कुछ भी कहने के पहले साफ कह देना चाहते है कि गीताका विषय न तो भागवतधर्म है और न कुछ दूसरा ही। उसका तो अपना ही गीता- धर्म है जो और कही नही पाया जाता है । यही तो गीताको खूबी है और इसीलिये उसकी सर्वमान्यता है । दूसरोकी नकल करनेमे उसकी इतनी कद्र, इतनी प्रतिष्ठा कभी हो नहीं सकती थी। तब उसकी अपनी विशे- पता होती ही क्या कि लोग उसपर टूट पडते ? यह बात तो हमने अबतक अच्छी तरह सिद्ध कर दी है। यह भी तो कही चुके है कि गीताने यदि प्रसगवश या जरूरत समझके दूसरोकी बाते भी ली है तो उनपर अपना ही रग चढ़ा दिया है। मगर भागवत धर्मपर कौनसा अपना रग उसने चढ़ाया है यह तो किसीने नही कहा । अगर रग चढ़े भी तो जब गीताका मुख्य विषय दूसरोका ही ठहरा, न कि अपना खास, तब तो उसकी विशेषता जाती ही रही । शास्त्रो और ग्रन्थोकी विशेषता होती है मौलि- कतामें । उनकी जरूरत होती है किसी नये विषयके प्रतिपादनमे । यही दुनियाका नियम एव सर्वमान्य सिद्धान्त है। लेकिन और भी सुनिये । सबसे पहले सभी अध्यायोके अन्तमे लिखे “योगशास्त्रे" और "भगवद्- गीतासु"को ही ले। जब इस बार-बार लिखे योग शब्दसे कोई खास अभिप्राय लेने या इसे खास मानी पिन्हानेका यत्न किया जाता है तो हमे आश्चर्य होता है । गीताका योग शब्द तो इतने अर्थोमे आया है कि कुछ कहिये मत। अमरकोषके "योगः सहननोपायध्यानसगतियुक्तिषु" (३।३।२२) मे जितने अर्थ इस शब्दके लिखे गये है और उनके विव- रणके रूपमे जो बीसियो प्रकारके अर्थ पातजलदर्शन, महाभारत, या ज्योतिष ग्रन्थोमे आते है प्राय. सभी अर्थोमे गीताने योगशब्दको लिखके ऊपरसे कुछ नये मानी भी जोडे है। उसने अपना खास अर्थ
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