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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३६७

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३७२ गीता-हृदय भी इस शब्दको पिन्हाया है। यदि गीताके १८वे अध्यायके अन्तके ७४-७६ श्लोकोको गौरसे देखा जाय तो पता चलेगा कि गीताके समूचे सवादको भी योग ही कहा है। यह तो हम पहले वता चुके है कि गीताका अपना योग क्या है। और भी देखिये कि पहले अध्यायमें जिस अर्जुनके विपादकी ही बात मानी जाती है उसे भी "विषादयोगोनाम प्रथमोऽध्याय" शब्दोमे साफ ही योग कह दिया है। भला इसका क्या सम्बन्ध है भागवत धर्मके साथ ? अध्यायोके अन्तमे जो योग शब्द आये है वह तो अलग-अलग प्रत्येक अध्यायमे प्रतिपादित वातोंके ही मानीमे है। जवतक यह सिद्ध न हो जाय कि सभी प्रतिपादित वातें भागवतधर्म ही है तवतक उन योग शब्दोसे यह कैसे माना जाय कि वे भाग- वतधर्मकेही प्रतिपादक है ? ऐसा मानने में तो अन्योन्याश्रय दोष होजायगा। यही कारण है कि हर अध्यायमे लिखी बातोको ही अन्तमें लिखके आगे योग शब्द जोड दिया गया है। इसलिये उन शब्दोसे ऐसा अर्थ निकालना सिर्फ वालकी खाल खीचना है । रह गई बात “भगवद्गीतासु" या "श्रीमद्भगवद्गीतासु" शब्दकी। हम तो इसमे भी कोई खास बात नही देखते । इससे यदि भागवतधर्मको सिद्ध करने की कोशिश की जाती है तो फिर वही बालकी खालवाली बात आ जाती है । यह तो सभी मानते है कि गीता तो उपनिषदोकाही रूपान्तर है-उपनिषद ही है। फर्क सिर्फ यही है कि उपनिषदोको भगवानने खुद अपने शब्दोमे जब पुनरपि कह दिया तभी उसका नाम भगवद्गीतोप- निषद पड गया। गीता शब्द जिस गै धातुसे बनता है तथा उसका अर्थ जो गान लिखा है उसके मानी वर्णन या कथन है । फिर वह कथन चाहे तान-स्वरके साथ हो या साधारण शब्दोमे ही हो। गान भी तो केवल सामवेदमेही होता है । मगर “वेदै सागपदक्रमोपनिषदैर्गायति य सामगा". में तो सभी वेदोमें और उपनिषदोमे भी गानकी बात ही लिखी है ।