पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/३६९

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३७४ गीता-हृदय योग भी समाविष्ट है। तीसरे अध्यायके "कर्मयोग" (३१)में और “योगिन कर्म" (५।११)मे भी योग शब्द साधारण कर्मके ही मानीमें पाया है। इसीलिये वहाँ कर्मयोग शब्दका वह विशेष अर्थ नहीं है जो उसपर कर्मयोग-शास्त्रके नामसे लादा जाता है। इसी तरह “यत्रकाले त्वनावृत्तिम्" प्रादि (८।२३-२७) श्लोकोमे कई वार योग और योगी शब्द मावारण कर्म करनेवालोके भी अर्थ-व्यापक अर्थ-मे आया है। “योगक्षेम" (६।२२) और "योगमाया समावृत" (७।२५)का योग शब्द भी अप्राप्तकी प्राप्ति आदि दूसरे ही अर्थोमे है । दसवें अध्यायमें कई वार योग शब्द विभूति शब्दके साथ पाया है और वह भगवानकी शक्तिका ही वाचक है । वारहवें में भी कितनी ही वार यह शब्द अभ्यास वगैरह दूसरे अर्थमे ही प्रयुक्त हुआ है । तेरहवेंके "अन्ये साख्येन योगेन" (१३१२४) मे तो साफ ही योगका अर्थ ज्ञान है । इस प्रकार यदि ध्यानसे देखा जाय तो दस ही वीस वार योग शब्द उस अर्थ में मुश्किलसे आया है, जिसका निरूपण "कर्मण्येवाधिकारस्ते". (२।४७-४८) में किया गया है, हालांकि उस योगका भी जो निरूपण हमने किया है और जिसे गीताधर्म माना है वह ऐसा है कि उसके भीतर कर्मका करना और उसका सन्यास दोनो ही आ जाते है। मगर यदि यह न भी मानें और योगका अर्थ वहाँ वही माने जो गीतारहस्यमें माना गया है, तो भी अाखिर इससे क्या मतलव निकलता है ? गीताके श्लोकोमें जो सैकडो वारसे ज्यादा योग शब्द पाया है उसमे यदि दस या वीस ही बार असदिग्ध रूपसे उस अर्थमे आया है और बाकी दूसरे-दूसरे अर्थोंमें, तो योग शब्दके बारेमे यह दावा कैसे किया जा सकता है कि वह प्रधानतया गीतामें उसी भागवतधर्मका ही प्रतिपादक है ? चाहे आवेशमें आके औरोको भले ही कह दिया जाय कि वे तो शब्दोका अर्थ जवर्दस्ती करके अपने सम्प्रदायकी पुष्टि करना चाहते हैं। मगर यह इलजाम तो उलटे