४२२ गीता-हृदय (इसपर), दोनो फौजोंके बीच (खडे) शोकाकुल अर्जुनसे कृष्ण (उसका) कुछ उपहास करते हुएसे कहने लगे ।१०। यहाँ यह जान लेना होगा कि अर्जुनकी इन आखिरी वातोंसे कृष्ण- को पता चल गया कि यह मर्ज बहुत गहरा है । उनने बखूबी समझ लिया कि उनका पहला खयाल कि अर्जुन सिर्फ माया-ममतामें पडके ही मानव स्वभाव सुलभ कमजोरियोके करते आगा-पीछा कर रहा है, गलत है। यदि यह बात होती तो पहली ही ललकारसे काम चल गया होता। मगर यहाँ तो बात ही दूसरी मालूम हुई । अर्जुन तो बहुत गहराईमें घुस चुका था। आमतौरसे धर्मशास्त्रोंके आदेशो और धर्मके अनुशासनोका अव उसपर तबतक असर नही हो सकता था जबतक उसकी असली कमजोरी दूर न कर दी जाय । जबतक उसे यह पता न लग जाय कि आत्मा अवि- नाशी है, वह किसीको मारती नही और न खुद मरती है, तबतक उसमें युद्धकी मुस्तैदी आ नही सकती। असलमे जो साधारण समझके या बिना समझवाले लोग होते है उन्हें तो पशोकी तरह नीति एव धर्मशास्त्रोंके वचनोकी लाठीसे ही हाँक ले जाते है और जहाँ चाहे भिडा दे सकते है। उनके लिये यही वात काफी होती है। मगर जो आगे बढ गया और भले-बुरेका विचार स्वतत्र रूपसे खुद ही कर सकता है उसके सामने ये आदेश और वचन बेकार होते है। इतना ही नही । गुरुजनोकी आज्ञा भी उसपर कोई असर डाल नही सकती, जबतक उसके दिमागमे वह बात जॅच न जाय । यही कारण है कि कृष्ण जैसे महापुरुषकी भी वातका प्रभाव अर्जुनपर जरा भी न पड सका और वह टससे मस न हो सका। इसीलिये कृष्णको भी गहराईमे जाना पड़ा। इस प्रकार जिस सूक्ष्म एव दार्गनिक दिमागसे वह दलीले कर रहा था उसीका आश्रय लेके उसे निरुत्तर करना और मनाना पडा । वह बारवार भीष्म, द्रोण आदिके
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