पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४१६

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दूसरा अध्याय ४२३ मरने और अपने मारनेकी बाते करता था। इसलिये लाचार होके कृष्ण- को सबसे पहले इस मरने-मारनेका रहस्य बताना एव भडाफोड करना ही पडा। उनने साफ ही देखा कि इसे तो आत्माके ककहरेका भी ज्ञान नही है-यह जानता ही नही कि वह क्या चीज है। यह तो समझता है कि सचमुच वह मरने-मारनेवाली कोई चीज है। यही कारण है कि वह धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा, पुण्य-पाप और स्वर्ग-नर्कका ताल्लुक प्रात्मासे ही जोडके हिचकता है । क्योकि युद्धमे जब आत्माने हिंसाकी तो पाप- भागी होके खामखा नर्क जायगी ही। इसीलिये वह हिसासे बचना चाहता है । फलत कुलसहारके भयकर दोषोसे उसकी आत्मा कॉपती है । क्योकि वह उसमे अपनी और दूसरोकी भी—सबोंकी-अधोगति देखता है। इस प्रकार आत्माके वास्तविक स्वरूपको जाने बिना ही यह सारी बला है, यह कृष्णको साफ नजर आया। उनने देख लिया कि उस स्वरूपके जानते ही यह सारा पर्दा कुहासेकी तरह फट जायगा । इसीलिये उनने आत्माके ही स्वरूपको लेके गीतोपदेश आरभ किया। यदि आत्मा अकर्ता और अविनाशी सिद्ध हो जाय तो फिर स्वर्ग-नर्क और पाप-पुण्यका सवाल उठता ही कहाँ है ? इसलिये पहले जडको ही साफ करना उनने उचित समझा और जरूरी भी। क्योकि आगे चलके जो कर्मों और कर्मयोगका विवेचन उनने किया है वह भी आत्मज्ञानके बिना नही समझा जा सकता और न वह योग ही हासिल हो सकता है। यह बात पहले विस्तारके साथ बताई जा चुकी है। कर्मयोगका भी मूलाधार अात्मविवेक ही माना गया है । इसीलिये आत्मविवेक पहले और कर्मका विवेक पीछे इसी दूसरे ही अध्यायमे आया है। शेष अध्यायोमे तो उसीका प्रकारान्तरसे स्वतत्र रूपसे स्पष्टीकरण किया जाकर एक-एक चीजपर काफी प्रकाश डाला गया है। यहाँ जो प्रहास या उपहासकी बात कही गई है उसका भी मतलव