पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४१७

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४२४ गीता-हृदय समझ लेना होगा। 'इव' शब्द देकर पूरा प्रहास रोका गया है । कहनेका मतलब यह हो जाता है कि ऐसा मालूम पडता था कि कृष्ण अर्जुनका उपहास कर रहे है-उसकी मखौल उडा रहे है। अगले श्लोकमें उनके कहनेका जो तरीका है उससे भी ऐसा ही प्रतीत होता है। वह कहते है कि बाते तो बडी अक्लकी करते हो । मगर अफसोस ऐसे पदार्थोका करते हो जिनका करना चाहिये ही नही । यह एक तरहका परिहास ही तो है। यदि किसी विपक्षीसे बातें करनी हो तो यही बात परिहास हो जायगी। मगर अर्जुन तो शिष्य बनके शरणमे आ चुका है । वह इहलोक तथा परलोकके सुखोंसे पूरा विरागी भी हो चुका है, जिससे साफ हो जाता है कि वह आत्मज्ञानका पूर्ण अधिकारी बन चुका है। भला ऐसे आदमीका उपहास कृष्ण जैसा विवेकी महापुरुष कैसे कर सकता है ? यह तो उनकी महत्ताके विपरीत अत्यन्त छोटी बात और विवेकशून्यता हो जायगी। उपहास तो प्रतिवादी, प्रतिपक्षी या शत्रुका करते है, या उसका जो समानताका दावा करे। जो शरणागत हो, शिष्य हो, ससार और स्वर्गादिके सुखोंसे विरागी हो, उन्हें कुछ न समझता हो और ज्ञानप्राप्तिकी ही जिसे भूख हो उसका उपहास कैसा ? इसीलिये कह दिया है कि कृष्ण अर्जुनका उपहास करते जैसे मालूम हुए। जिस तरह उनने उपदेश देना शुरू किया उसे बाहरसे देखके सारी बातोको न जाननेवाला कोई भी आदमी उपहास ही मान सकता है। यही वैसा कहनेका आशय है। असल बात यह है कि उस समय कृष्णकी भावभगी अजीब और मनोवृत्ति निराली थी। उनकी विलक्षण दशा थी। वैसे सकटके समय एकाएक अर्जुनकी वैसी हालत देखके, जिसका उन्हे या किसीको जरासा आभास भी पहले न मिला था, उन्हें आश्चर्यसे दग हो जाना पड़ा कि यह क्या हो गया | इस लडाईको लेके वह काफी दौडे-धूपे । परीशान भी पूरे हो चुके थे। इसीके करते उनके सगे भाई वलराम एक तरहसे