४३० गीता-हृदय यह बराबर देखा जाता है कि प्रियजनोंके सयोग-वियोगसे सुख-दुःख होते ही है। चाहे आत्मा अमर हो या उससे भी वढके हो। मगर शरीरान्त होने पर सगे-सम्वन्धियोको अपार कष्ट होता ही है, और यही वात इस युद्धके चलते विस्तृत रूपमे होनेवाली है। फिर क्यो न इससे किनारा- कशी की जाय ? भीष्मादि कहनेसे शरीर भी तो लिये ही जाते है और उनका नाश होता ही है। इसी वातका उत्तर यो देते है- मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा.। भागमापायिनोऽनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत ॥१४॥ हे कौन्तेय, भौतिक पदार्थोके सम्बन्ध सर्दी-गर्मीकी तरह कभी सुख और कभी दुख देते रहते है (जरूर)। मगर यह ठहरे तो आने जानेवाले ही और इसीलिये चन्दरोजा ही। (अतएव) इन्हें तो बर्दाश्त करना ही होगा हे भारत १४) मात्रा स्पर्श ही गीता (५।२१-२२) मे वाह्य स्पर्श कहा है। स्पर्श नाम है सम्बन्धका । बाह्य कहते है भौतिकको। वही देखनेसे यह साफ हो जाता है। यहि न व्यथयन्त्येते पुरुष पुरुषर्षभ । समदुःखसुख धीर सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥१५॥ क्योकि हे पुरुषश्रेष्ठ, सुख-दु खमे एक रस रहनेवाले जिस पुरुषको ये पदार्थ उद्विग्न नहीं कर पाते वही अमृतत्व-मुक्ति प्राप्त करता है ।१५॥ 'सम दुख-सुख'का यह मतलब नहीं कि दोनोको एक बना दे। ऐसा तो होना असभव है। दोनो दो चीजें है। फिर एक कैसे होगी? यह भी न कि दुख या सुख जरा भी मालूम ही न हो। चेतन पुरुषके लिये यह भी अनहोनी चीज है। किन्तु जैसे पानीकी लकीर बनते ही बनते मिट जाती है ठीक वैसे ही दिल-दिमाग पर जब ये दोनो नाम मात्रका ही असर करें तभी मनुष्य सम दुख-सुख कहा जाता है । साराश यह कि दिल-दिमागकी
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४२३
दिखावट