दूसरा अध्याय ४३१ गभीरता (serenity or balance) को ये बिगाड न सके । यही गीताका साम्यवाद है जो अभी पहली बार आया है। इस प्रकार आत्माको अविनाशी या नित्य और शरीरादिको अनित्य तो बता दिया। इससे काम भी चल गया। मगर कौन-सा पदार्थ नित्य और कौन-सा अनित्य है इसे कैसे जाने ? हरेक पदार्थको गिन-गिनके देखना और समझना तो असभव है। क्योकि पदार्थ ठहरे अनन्त । फिर सवोको जाना कैसे जाय ? और अगर किसीको न जान सके तो उसीको लेकर भ्रम और गडबड हो सकती है कि यही आत्मा तो नही है ? इस तरह अनिश्चयका वायुमडल बना रह सकता है। फलत पूर्वके प्रतिपादनसे पूरा काम चलता दीखता नही । इसीलिये एक तो नित्य और अनित्य या सत्य और मिथ्याके वारे में कोई दार्शनिक नियम, लक्षण तथा परिभापा चाहिये। ताकि वेखटके पहचान हो सके। दूसरे, आत्माकी पहचान भी पक्की होनी चाहिये कि वह कौन है। नहीं तो शायद घपला हो जाय । ऐसे मामलेमे जितनी ही सफाई हो जाय उतना ही अच्छा । एक बात और भी है। ऐसी शका कर सकते है कि यह क्यो न माना जाय कि इस शरीरमे जो आत्मा है उसका अस्तित्व इससे पहले न था वह अस्तित्व तो पहले-पहल इसी शरीरमे ही आया है, हुआ है। इसी तरह यह भी क्यो न मान लिया जाय कि इसी शरीरके अन्तके साथ आत्माका भी अन्त हो जाता है और आगे उसे पा नही सकते ? यह भी प्रश्न हो सकता है । अतएव इसका पूरा-पूरा समाधान हो जाना जरूरी है। आगेके १६वेसे लेकर २५वे श्लोक तक यही बात समझाई गई है। उसमे भी पहले शुरू किया है इस आखिरी शकाको ही लेकर कि इस शरीरमे जो आत्मा है वह पहले न थी। नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥१६॥ ?
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