पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४२५

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४३२ गीता-हृदय जो पदार्थ पहले न हो उसका अस्तित्त्व होई नही सकता-वह बनी नही सकता, (और) जो मौजूद है-सत्तावाला है-उसका नाश या खात्मा भी नही हो सकता। इन दोनो वातोका निर्णय तत्त्वदर्शी लोगोने (ही) कर दिया है ।१६ यहाँ अन्त शब्द तत्त्वदर्शी शब्दके साथ होनेसे निश्चय या निर्णयके ही अर्थमे पाया है। क्योकि तत्त्वदर्शी तो दार्शनिक होते है। जिस वातका आखिरी फैसला वाद-विवादके बाद कर लेते है उसे ही सिद्धान्त, राद्धान्त तथा कृतान्त भी कहते है । इन तीनो शब्दोका एक ही अर्थ है। वह यह है कि जिन पदार्थोके बारेमे अन्त या अन्तिम बात हो चुकी, फैसला हो चुका वही सिद्धान्त है । “साख्ये कृतान्ते" (१८।१३)मे कृतान्त शब्द और उसके अन्त शब्दका यही अर्थ है। इस तरह सिद्ध हो जाता है कि यदि आत्मा नामका कोई पदार्थ पहले न होता तो उसका अस्तित्व इस शरीरमें होता ही नही। इसी तरह जव यहाँ वह है तो आगे भी रहेगा। क्योकि जो चीज है वह खत्म हो नही सकती। इसलिये श्रात्मा अनित्य है। उसकी पहचान यो है- अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिद ततम् । विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥१७॥ अविनाशी तो वही वस्तु--आत्मवस्तु-जानो जो इस समूचे जगत्को फैलाती, बनाती है और जो इसमे व्याप्त है-इसकी रगरगमे घुसी है। इस अविनाशी-निर्विकार-का नाश कोई भी कर नहीं सकता ।१७। जो सभी पदार्थोका स्व है, निजी रूप है, अपना रूप है, स्वरूप है वही तो उसकी आत्मा है, सबकी आत्मा है। यह स्व कहाँ नही है ? यह तो सभी जगह है, सवोमे है। आखिर अपना तो सवोका कुछ न कुछ होता ही है। इसीलिये वह आत्मा अविनाशी है। क्योकि स्व तो रहेगा ही। और नही, तो जो पदार्थ नष्ट होगा उसके नाशकी हस्ती, सत्ता तो