पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४२६

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दूसरा अध्याय ४३३ ? रहेगी ही और वह भी तो स्व है । कभी पदार्थके रूपमे वह स्व, वह आत्मा नजर आती है तो कभी पदार्थके नागके रूपमे। कभी विधि रूपमे (pos1- tively) तो कभी निषेध रूपमे (negatively) । इसलिये तो उसे अविनाशी और नित्य मानना ही होगा। ऐसा तो होई नही सकता कि कभी यह स्व, यह आत्मा रहेई न । क्योकि जब कुछ न होगा, तो और नही तो न होनेका स्व या अस्तित्व तो रहेगा ही। कमसे कम उसे तो उस समय मानना ही होगा। नही तो यह कहेगे कैसे कि कुछ नही रह गया है ? इसीलिये उसे नाशकी आत्मा मानके नित्य और अविनाशी मानते है । जव विधि और निषेध उसीके रूप है और सभी पदार्थ भी उसीके है तो यह भी ठीक ही है कि उसोने सवका प्रसार किया है, जगत्का यह ताना बाना फैलाया है। मगर शरीर, घडा, कपडा, रोटी, जमीन वगैरहकी क्या हालत है ? ये तो सर्वत्र फैले है नहीं। शरीरमे कपडेका, कपडेमे शरीरका पता कहाँ है ? दोनोमे घडेका और घडेमे भी दोनोकी सत्ता है कहाँ ? इसी प्रकार सभी पदार्थोको एक एक करके देख सकते है। यहाँ तो अपनी अपनी डफली बज रही है। किसीका किसीसे ताल्लुक नही है, नाता-रिश्ता हई नहीं । सभी अपने ही तक सीमित है। यह तो घोर विभिन्नता है, अजीव जुदाई है, निराली फूट है। यह अनोखा गृहयुद्ध (civil war) है, भयकर गृहकलह है । यही तो वास्तविक कौरव-पाडवका महाभारत है। यहाँ कोई किसीको पूछता नहीं । फलत सभी अापसमे एक दूसरेसे टकराके खत्म हो जाते है। कभी घडेसे टकराके शरीर खत्म होता है, तो कभी शरीरसे टकराके घडा और दोनोसे टकराके कपडा । यही हालत सभी पदार्थोकी है। ठीक ही है । मेलमे, ऐक्यमे जीवन है, जिन्दगी है, सृष्टि है । परमाणुरोका परस्पर या प्रकृतिका पुरुषसे सयोग होनेसे ही, मेल होनेसे ही तो सृष्टि होती है। विपरीत इसके उनकी जुदाई २८