४३८ गीता-हृदय सिर्फ इशारा करती है कि देखो वह है, वह । वह उसे ठीक-ठीक बता नहीं सकती। वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् । कथ स पुरुषः पार्थ के घातयति हन्ति कम् ॥२१॥ (इसलिये हे पार्थ, जो पुरुष-मर्दाना-इस आत्माको जन्मरहित, विकार शून्य, अविनाशी और कालके घेरेसे बाहर जानता है--मानता है, समझता है, अनुभव करता है-वह (भला) किसे मरवाता (और) किसे मारता है १२१॥ अब यह प्रश्न होता है कि तो मरना, मारना आखिर कहते है किस चीज को ? दुनियामें मरने मारने जैसी चीज नहीं है, यह तो कही नही सकते है । यह तो आये दिनकी चीज है, हमारे रोजके व्यवहारकी बात है। हम हमेशा ही यह मरा, वह मरा, इसने मारा, उसने मारा, फलाने मरवाया, की बातें करते ही रहते है। सभी लोग ऐसी ही बातें करते है । यह तो कही नही सकते कि सबके सब पागल है। इसलिये इतना तो मानना ही होगा कि यह कोई चीज है। अब रही वात कि वह क्या चीज है ? और अगर यह कुछ भी है तो फिर उसके लिये चिन्ता-फिक्र करना मुनासिब ही है। फिर भी इसकी चिन्ता न करके खुशीकी चीज इसे कैसे माने ? इसका उत्तर इस तरह देते है- वासासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि सयाति नवानि देही ॥२२॥ जिस तरह पुराने कपडोको (खुशी-खुशी) छोडके (कोई भी कपडा पहने) आदमी दूसरे नये कपडे पहनता है। ठीक उसी तरह देह धारण करनेवाली-देही-प्रात्मा पुराने शरीरोको छोडके दूसरे नये शरीरोमे पहुँचती है-उन्हे स्वीकार करती है ।२२। यहाँ कई वातोका खयाल करना होगा। पहली बात तो यह कि !
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