दूसरा अध्याय ४४३ श्लोकमे जो अच्छेद्य आदि शब्द आये है उनका अर्थ हमने किया है काटा जा सकता नही, आदि। इन शब्दोके बननेमे व्याकरणका जो ‘ण्य' प्रत्यय लगा है उसे कृत्य प्रत्यय कहते है और पाणिनिके "शकि लिड् च" (३।३।१७२) सूत्रके अनुसार कृत्य और लिड् प्रत्यय 'सकने' अर्थमे भी आते है। यहाँ यही अर्थ ठीक बैठ जाता है भी। जब हथियार वगैरह काट सकते ही नहीं, जब उनकी ताकत ही नहीं कि आत्माको काट सके, तो फिर काटें कैसे ? इस तरह पहले श्लोकमें नही काटने आदिकी जो वात कही गई है उसका कारण इस श्लोकमें स्पष्ट कर दिया है। आखिर ये शस्त्रादि काट या जला भी सके तो कैसे ? जब यह आत्मा ही है तो जैसे हमारी और आपकी, अर्जुन और कृष्णकी आत्मा है, वैसे ही अस्त्र- शस्त्र, आग, पानी, हवा वगैरहकी भी। यह तो सवोकी स्व है, सबोका स्व-भाव है, सबोका अस्तित्व है, सत्ता है। तब यह कैसे हो कि अग्नि अपने आपको ही जलाये ? क्योकि तव तो खुद अग्नि ही खत्म हो जायगी न ? फिर औरोको जलायेगी कैसे ? जब वह रही ही नही, जब उसका अस्तित्व रही नही गया तो वह जलाये किसे ? यही बात पानी, हवा आदिकी भी है । भला अपने आपको ही ये खत्म करे । यह हिम्मत किसे होगी ? यह तो सोचना भी भूल है । पहलेके ६ और ७ श्लोकोमे जो 'भुजीय', 'जयेम' आदिमे लिड् आया है उसका भविष्यके अलावे यह ‘सकना' भी अर्थ हो सकता है। उसका तव यह मतलब होगा कि इन गुरुजनोको मारके ज्यादेसे ज्यादा खुनसे रंगे पदार्थोको भोग ही तो सकते है। और कौन कहे कि कौन जीत सकता है हम जीत सकते है या वही लोग, अभीसे यह कौन बताये ? हाँ, तो इस श्लोकमे जो आत्माको अचल कहा उसकी तो वजह साफ ही है । जब वह स्थूल, या व्यक्त पदार्थ नहीं है जो इन्द्रियोंके कब्जेमे आ सके तो उसे हिलाये-डुलायेगे कैसे ? और जब वह वुद्धिकी भी पकड़के ? ?
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