दूसरा अध्याय ४४६ कभी इन नियमोमे किसीको कोई तोडता है, तो किसीको दूसरा ही। फलत नात्सी जर्मनीके इस युद्धमे उसके पक्षके सवोने ही इन्हे तोड-ताडके खत्म कर दिया है। महाभारतके भीष्मपर्वके देखनेसे पता चलता है कि युद्धारम्भके पहले ऐसे सभी नियम दोनो पक्षोने साफ-साफ स्वीकार कर लिये थे । अतएव इन्ही नियमोके अनुसार होनेवाले युद्धको धर्मयुद्ध और इन्हे तोड-ताडके होनेवालेको अधर्मयुद्ध कहा है। यहाँ धर्म शब्दका- दूसरा अर्थ असभव है। धर्मशास्त्रमे लिखा युद्ध ही धर्मयुद्ध है यह भी मतलव यहाँ नही है। सभी युद्ध तो धर्मशास्त्रमे ही लिखे रहते है। इस- लिये जबतक उनके सम्बन्धमे लागू पूर्वोक्त नियमोको नही कहते तबतक धर्मयुद्ध कहना बेकार है । और जब स्वधर्म कही चुके है, तो फिर दुहरानेका क्या प्रयोजन ? जो लोग यहाँ स्वधर्मकी वात लिखी देखके इसकी मिलान आगेके "कर्मण्येवाधिकारस्ते' (२०४७) से करते है वह भी भूलते है । यह प्रकरण ज्ञानका ही है । “एषा तेऽभिहिता" (२।३६)से ही कर्मयोगका प्रकरण शुरू होता है । इसलिये बीचमे ही उसकी बात यहाँ कैसे आ सकती है ? इसी प्रकार "श्रेयान् स्वधर्म." (३।३५ तथा १८१४७) मे भी स्वधर्म शब्द स्मृतियोके धर्मों के लिये ही नहीं पाया है। वह तो व्यापक अर्थमे कर्ममात्रका ही वाचक है। यह बात हम पहले ही अच्छी तरह लिख चुके है । इन नियमोके साथ लडी जानेवाली लडाई भी धर्मशास्त्र-सम्मत होनी चाहिये, यही आशय यहाँ है । 'श्रेयस्' शब्दके बारेमे भी जान लेना चाहिए कि मोक्षके अर्थमे उसका खासतौरसे प्रयोग गीतामे कही शायद ही हुआ हो, जैसा कि कठोपनिषदके "अन्यच्छेयोऽन्यदुतव", तथा “श्रेयश्च प्रेयश्च” (१।२।१-२) मे आया है। तीसरे अध्यायके शुरूके दूसरे श्लोकके 'श्रेय' शब्दको कल्याण या मोक्षके अर्थमे ले सकते है और इसका कारण भी आगे लिखा है कि कहाँ ऐसा अर्थ होता है । मगर यहाँ कल्याण ही २६ 1
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