पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४४३

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४५० गीता-हृदय अर्थ उचित लगता है। इसीलिये आगे "श्रेय परमवाप्स्यथ" (३३११)में श्रेय का विशेषण पर हो जानेसे परमश्रेय या परमकल्याणका अर्थ मोक्ष ठीक लगता है। क्योकि वही तो आखिरी कल्याण है। असलमे प्रशस्य शब्दसे ही यह श्रेयस् शब्द "प्रशस्यस्य श्र" (५।३।६०) पाणिनिसूत्रकी सहायतासे बनता है। इसमें प्रशस्यका अर्थ है प्रशसनीय या प्रशसाके योग्य अर्थात् अच्छा । उसीसे बने श्रेयस् शब्दका प्रयोग करते है ऐसी ही जगह जहां कइयोमे एकको अच्छा समझके चुन लेना हो। इससे स्वभावत. ज्यादा अच्छा, सवोसे अच्छा इसी मानीमें श्रेयस् शब्द आता है और हमने यही लिखा है। जब दोमें एकको अच्छा लिखते है तो उतने ही से यह बात अर्थात् सिद्ध हो जाती है कि वह बहुत अच्छा है। दूसरेकी अपेक्षा कहनेका यही अर्थ होता है। गीतामें आमतौरसे ऐसा ही पाया जाता है भी। इसीके अर्थमें 'विशिष्यते' शब्द आया है। दोनोका ठीक-ठीक एक ही अर्थ है। हाँ, जहाँ किसीका मुकाविला न हो, या दोमे एकको चुनना न हो वहीपर मोक्ष आदि अर्थ आते हैं, जैसा कठोपनिषदका दृष्टान्त दिया गया है। वहाँ श्रेयस् शब्दका स्वतत्र प्रयोग है । स्वर्गद्वारमपावृतम्। सुखिन. क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥३२॥ हे पार्थ, अकस्मात् या आप ही आप खुले स्वर्गके द्वारके रूपमें हाजिर इस तरहका युद्ध तो खुशकिस्मत क्षत्रियो को ही मुयस्सर होता है ।३२॥ अथ चैत्त्वमिम धयं सग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीति च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥३३॥ और अगर तुम यह धर्मयुद्ध न करोगे तो अपने धर्म और कीर्ति दोनोको गँवाके (केवल) पाप बटोरोगे ।३३। / अकोत्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् । सभावितस्य चाकीतिर्मरणादतिरिच्यते ॥३४॥ यदृच्छया चोपपन्न