पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४७१

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४७८ गीता-हृदय रह जायगी नही । वह एक प्रकारसे बहुत ही आसान चीज हो जायगी। इसीलिये इसका स्पष्टीकरण आगेके बारह श्लोकोमें करना जरूरी हो गया। क्योकि यह विषय जरा गहन है । यह भी बात है कि क्या केवल विषयोके रोकनेमात्रकी ही जरूरत होती है, या और कुछ भी जरूरी होता है, यह भी जान लेना आवश्यक है। नही तो धोका हो सकता है, होता है। विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवजं रसोऽप्यस्य पर दृष्ट्वा निवर्तते ॥५६॥ आहार छोड देनेवाले मनुष्यके विषय तो (स्वय) हट जाते है । (मगर उनके प्रति) रागद्वेष बने रह जाते है । ये भी निवृत्त हो जाते है (सही, लेकिन) ब्रह्मरूपी आत्माको देखनेपर ही, आत्मतत्त्वके ज्ञानके बाद ही ॥५६॥ यहाँ आहार शब्द विचित्र है। सर्वसाधारणमें प्रचलित आहार शब्दका अर्थ है भोजन । यह भी माना जाता है कि केवल खाना-पीना- अन्न-छोड देनेसे ही सभी इन्द्रियाँ अपने आप शिथिल होके पस्त और अकर्मण्य हो जाती हैं। फलत विषयोतक पहुँच नही सकती है। हालत यहाँतक हो जाती है कि निराहार या अनशन करनेवालेके कानमें हारमो- नियम बजाइये तो भी उसे कुछ पता ही नही चलता है । नासिकाके पास इतर-गुलाव लाइये तो भी उसे गन्धका पता नही चलता। इसीलिये छान्दोग्योपनिषदके सातवे प्रपाठक-अध्याय के नवें खडमें लिखा भी है कि यदि दस दिन भोजन न करे तो उसके प्राण भले ही न जाये, फिर भी सुनना, सोचना, विचारना वगैरह तो खत्म ही हो जाता है-"यद्यपि दशरात्रीश्निीयाद्याहजीवेदथवाऽद्रष्टाऽश्रोताऽमन्ताऽवोद्धाऽकर्ताऽविज्ञाता भवति" (६।१)। दूसरी ओर यह माननेवाले भी बहुतसे लोग है कि आहारका अर्थ केवल अन्न न होके इन्द्रियोके पदार्थ या विषयको ही आहार कहना उचित