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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४७२

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दूसरा अध्याय ४७९ है। आहार शब्दका अर्थ भी यही होता है कि जो अपनी ओर खीचे । विषय तो खामखा इन्द्रियोको खीचते ही है । पहले श्लोकमे सिर्फ भोजनकी बात न आके विषयोकी ही बात आई है। बादवाले श्लोकमे भी इन्द्रियोके विषयोकी ओर ही खिंच जाने और मनको खीच ले जानेकी बात कही गई है। छान्दोग्योपनिषदके सातवे प्रपाठकके अन्तमे यह भी लिखा गया है कि आहारकी शुद्धिसे सत्त्वकी शुद्धि और सत्त्वकी शुद्धिसे पक्की एव चिरस्थायी स्मृति, जिसे स्मरण या तत्त्वज्ञान कहते है, होती है, जिससे सारे बन्धन कटके मुक्ति होती है-"आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति स्मृतिलम्भे सर्वप्रथीना विप्रमोक्ष” (७।२६।२) । यदि इस वचनसे पहलेवाले इसी २६वे खडके ही वाक्य पढे जायँ या सारा प्रकरण देखा जाय तो साफ पता चलता है कि यहाँ आहार शब्दका अर्थ इन्द्रियोके विषय ही उचित है, न कि भोजन । यही ठीक भी है । केवल भोजन तो ठीक हो और बाकी काम ठीक न रहे तो सत्त्वगुण या उस गुणवाले अन्त करणकी शुद्धि कैसे होगी और उसकी मैल कैसे दूर होगी ? तब तो खामखा रज और तमका धावा होता ही रहेगा। फलत वे सत्त्व या सत्त्व-प्रधान अन्त करणको रह-रहके दबाते ही रहेगे । इसीलिये चौदहवे अध्यायके अन्तमे गीतामे भी गुणोसे पिंड छूटनेके लिये ऐसी चीजे बताई गई है जो भोजनसे निराली और विभिन्न विषय रूप ही है। ____ यह ठीक है कि जब अनशन करनेवाले लोग कहें कि इन्द्रियोको वशमे करनेके लिये आत्मतत्त्व विवेककी जरूरत है नहीं, केवल निराहार होनेसे ही काम चल जायगा, तो उनके उत्तरमे इस श्लोकमे यह कहनेका सुन्दर मौका है कि हाँ, इन्द्रियाँ तो स्क जाती है जरूर । मगर रस या चस्का तो बना ही रहता है, जिसे राग और द्वेषके नामसे पुकारते है। इसीलिये तत्त्वज्ञानकी जरूरत है। क्योकि वह रस तो उसीसे खत्म होता है। इस प्रकार श्लोककी सगति भी बैठ जाती है। मगर यह सगति तो विषयो