“४८० गीता-हृदय की बात मान लेनेपर भी बैठ जाती ही है । क्योकि हठी तपस्वी लोग एकदम निराहार तो नही हो जाते । शरीररक्षार्थ कुछ तो खाते-पीते हई । हाँ, कामचलाऊ मात्र ही स्वीकार करते और शीत-उष्णको सख्तीके साथ सहके इन्द्रियोको बलपूर्वक रोक रखते है। आखिर उनका भी तो जवाब चाहिये । ऐसे ही लोग ज्यादा होते है भी। इसीलिये गीताने उनका और दूसरोका भी उत्तर इसी श्लोकमे दिया है। राग और द्वेषको ही यहाँ रस कहा गया है। इन्हीका दूसरा नाम काम एव क्रोध और भय तथा प्रीति भी है। इसे गीताने खासतौरसे सग कहा है। इसीके लिये प्रात्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान जरूरी माना गया है। वही योगका मूलाधार है । उसीके लिये सबसे पहले महान् यत्न करना जरूरी है। मगर कुछ लोग ऐसा गुमान कर सकते है कि प्रात्मज्ञान जैसी दुर्लभ चीजके लिये परीशान होने और मरनेकी क्या जरूरत है ? इन्द्रियोके रोकने का ही ज्यादेसे ज्यादा यत्न और अभ्यास करके यह काम हो सकता है कि वे आगे चलके कभी भी विषयोकी ओर न ताकें। आखिर राग-द्वेष लाठीसे तो मारते नहीं। होता है यही कि उनके रहते इन्द्रियोंके लिये खतरा बना रहता है कि कभी विषयोमें जा फसेंगी। यही वात न होनेका उपाय अभ्यास है । अभ्यास करते-करते ऐसी आदत पड जायगी कि अन्तमे विपय भूल जायेंगे । मगर ऐसे गुमानवाले न तो इन्द्रियोकी ही ताकत जानते है और न राग-द्वेषकी मोहनी और महिमा ही। यह राग-द्वेष ही ऐसी रस्सी है जो विषयोको इन्द्रियोंसे और इन्द्रियोको मनसे जोडती है। जबतक यह रस्सी जल न जाये कोई उपाय नही । तबतक इन्द्रियाँ खुद तो विषयोमें जायेंगी ही। मनको भी घसीट लेंगी। यही वात आगे यो कहते है- यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभ मनः॥६०॥
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