४६८ गीता-हृदय और वे सभी आफतोसे अलग हो गये | मौजमें विचरते फिरते है नगे है तो भी फिक्र नहीं है | गालियां पड रही है या आशीर्वाद मिल रहा है। मगर लापर्वाह और बेगम है | फिर यह कैसे कहा जाय कि बुद्धि या समझके चले जानेसे ही मनुष्य नष्ट हो जाता है ? यह भी नही कि पागल लोग फौरन मर जायें। वे तो बहुत दिनोतक पडे रहते है, जैसे दूसरे लोग । हाँ, यह जरूर होता है कि सभी रोग-बीमारियां लापता हो जाती है । लेकिन यह तो चौपट होनेके बजाय और भी अच्छी चीज है । यह तो मनमाँगा वरदान ही समझिये । एक बात और भी है। माना कि रागद्वेष छोडके और उनके फदेमें हर्गिज न पडके ही शरीरोपयोगी पदार्थोंका सेवन करना चाहिये । मगर क्या इतनेसे ही सव आफतें खत्म हो जायँगी ? जन्म-जन्मान्तरके सस्कार और रागद्वेषोके बीज तो अन्त करणमें पडेही रहते है। वह एका- एक तो चले जाते नही । इस शरीरमें भी अभी अभी हमने अासक्ति छोडके पदार्पोका सेवन शुरू किया है। मगर इससे पहले तो यह वात थी नही। तब तो आसक्ति थी ही। उसीके करते दिमागमें पहलेके पदार्थ बैठे है जो खामखा उमड पडेंगे और दिक करेंगे। आखिर सपनेकी तकलीफे ऐसी ही तो होती है। दिमागमें बीजरूपमें पडे पदार्थ ही तो सपनेमे उभडके जाने कौन कौनसी आफते ढाते रहते है। रागद्वेष रहित होके खानपान करनेवालेके भी ये सपने कायम ही रहते हैं। वे एकाएक तो मिट जाते नही। फिर क्या हो? यह गन्दगी धुले कैसे ? मिटे कैसे ? किस सावुनसे अच्छी तरह रगडके धोई जाय यह तो हजारों जन्मोकी पुरानी मैल है न ? इसीलिये इसे हटानेमे बहुत ज्यादा मिहनत, वारबारकी लगातार रगड दरकार होगी। सो क्या है यह तो माल्म है नही। और जो यह कह दिया कि स्मृनिके नाशसे बुद्धिका नाश हो जाता ?
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