पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४९१

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दूसरा अध्याय ४९६ ? है-"स्मृतिभ्रशाद्बुद्धिनाश", इसके क्या मानी है ? क्या सचमुच ज्ञान रही नही जाता और आदमी पत्थर हो जाता है यह बात तो ठीक नही । क्रोधके बाद भी आदमी तो आदमी ही रहता है। रोज ही यह वात देखी जाती है। फिर पत्थर होनेकी कौनसी नात ? और अगर यह नही है तो बुद्धिके नाशके मानी भी क्या है ? किस क्रोधीकी वुद्धि खत्म हो जाती है ? थोडी देरतक खास ढगका कोई पर्दासा पडा रहता है। मगर पीछे तो पीछे, उस समय भी समझदारीके दूसरे काम तो वह करता ही रहता है । आखिर उस समय भी उसके सभी काम पागलो जैसे ही होते नही। यह ठीक है कि वह कुछ काम उस समय बेविचारके- विवेकशून्य-कर डालता है जिससे मुसीबतें बढ जाती है । इसी तरह बढती रहती है भी। मगर इसे बुद्धिनाश तो कभी नही कह सकते । उसकी बेचैनी और परीशानी जरूर बढ जाती है, इसमे कोई शक नही है। इसके करते यह भी सभव है, उसे आराम न मिले । ऐसा ही प्राय. होता भी है। बेचैनी और परीशानीकी त्राग बढ जानेपर चैन कहाँ ? आराम कहाँ मगर वह चौपट नहीं होता । उसे बुद्धि भी रहती ही है। इस तरहकी अनेक बातोके रहते ही, और सुननेवालेके मनमे इस प्रकारकी शकायोके बनी रहनेपर भी यह कह देना कि मूल प्रसग पहले दो श्लोकोमे ही पूरा हो गया, कोई मानी नहीं रखता। इसीलिये आगेके श्लोक उसी बातको पकडके यही वाते खुद पेश करते और इनसे बचनेके उपाय सुझाते है । हमे यहीपर यह जान लेना होगा कि जो कुछ अभी कहा गया है अगले श्लोक उसे मानते है । वुद्धिनाराका वही मतलब है जो अभी कहा गया है। उस समय विवेकसे काम लिया जा सकता नही। इस तरह बेचैनी और मुसीवते बढती जाती है । और जो आदमी मुसीवतोमे घिरा है वह तो मरेसे भी बदतर है । उससे तो मरा कही ?