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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/४९२

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५०० गीता-हृदय अच्छा । अशान्त जीवन तो जहर ही समझिये, चौपट ही मानिये । आखिर शान्ति ही तो असल चीज है न ? आगेके श्लोकोने जन्मजन्मान्तरके पुराने सस्कारो और रागद्वेषके बीजोको जलानेके लिये-इस गहरीसे गहरी गन्दगीको मिटानेके लिये- जिस नये साबुनका नाम लिया है, जिस लगातार चिरकालीन रगड़का आविष्कार किया है उसे भावना कहते है। यही नाम उसे दिया भी है। जैसे रगको गाढा करके कपडेपर चढानेमें कपडेको रह-रहके रगमें डुबोते और सुखाते है। सोनेको भी रह-रहके गर्म करके पानीमें डुवाते और इस तरह उसे टक बनाते है। मामूली लोहे को भी बार-बार आँच देके पीटते और पानीमे डुवाते है ताकि इस्पात हो जाय । ठीक यही वात रागद्वेषादि मैलोको धो बहानेके लिये भी की जाती है, करनी पडती है । बार-बार सूक्ष्म दृष्टिसे निरीक्षण करके मनको रोकते और आत्मतत्त्वमें ही लगाते है। हर मौकेपर सजग रहके यही करते है । इसे ही पातजल योगमें ध्यान, धारणा और समाधि कहा है। इन तीनोको मिलाके सयम नाम दिया है-"त्रयमेकत्र सयम" (३।४) । गीताने भी आगे “सयमी" (२।६६) मे यही कहा है। इनमें ध्यान नीचे दर्जेकी चीज है। उसके वाद धारणा पाती है । ध्यान करते-करते मजबूती आनेपर धारणा और उसकी मजबूती होनेपर समाधिका समय आता है। इन तीनोंके पूरा होनेपर-सयमकी पूर्णता हो जानेपर-अन्त करणकी, बुद्धिकी सारीकी सारी युगयुगान्तरकी मैल जल धुल जाती है । फिर तो वह निर्मल हीरेकी ही तरह धप्-धप हो जाती है । इसके बाद अखड विज्ञानका व्यापक एव सनातन-अचल -प्रकाश होता है। इसीलिये पतजलिने भी कहा है कि-"तज्जयात् प्रज्ञालोक" (३।५) । उस प्रचड प्रकाश-उस द्वादश आदित्य के सामने अज्ञान और अन्धकारका पता कहाँ इसी सयम, इसी भावनाके करते मन आत्माके ही रगमे रग जाता है- ?