तीसरा अध्याय ५४७ ? अपनी-अपनी प्रकृतिके ही अनुसार सभी चलते है । दूसरी बात यह भी है कि प्रकृतिके गुणोकी जैसी यह बात है कि कर्मोंका ताल्लुक उन्हीसे है, न कि आत्मासे, ठीक वैसी यह बात भी तो है कि गुण कर्मोको कभी छोड नही सकते, मजबूरन कर्म करना ही पडता है-“कार्यतेह्यवशः कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै" (३१५)? फिर यदि कोई भी ज्ञानी जन जबर्दस्ती हाथ-पाँव रोकके कर्मसे हटना चाहेगे तो यह कैसे होगा ? उनकी यह रोक-थाम क्या कुछ भी कर सकेगी? वह तो महज बेकार साबित होगी। तब फौरन यह प्रश्न उठता है कि यदि हाथ-पाँव आदि इन्द्रियोकी रोक-थाम होई नही सकती, जब रोक-थाम बेकार है, क्योकि वह कुछ भी कर सकती ही नही, तो ज्ञानेन्द्रियोकी रोक-थाम भी कैसे सभव है ? आखिर सभी इन्द्रियाँ तो गुणोसे ही बनी है न ? और जब प्रकृति या उसके गुणोपर ही कब्जा नही है, तो फिर इन्द्रियोपर कैसे होगा, चाहे ज्ञानेन्द्रियाँ हो या कर्मेन्द्रियाँ ? ऐसी हालतमे इन्द्रियोके निग्रह, रोक-थाम या नियमन- का सवाल ही बेकार हो जाता है। और अगर यही बात मान ले, तो "इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य" (२०५८), "तानि सर्वाणि सयम्य" (२।६१) तथा “तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि” (२।६८) मे इन्द्रियोके निग्रहपर जो सबसे ज्यादा जोर दिया गया है और जो स्थितप्रज्ञ और योगीके लिये बुनियादी एव मौलिक वस्तु माना गया है वह कैसे ठीक होगा? यही नही । इन्द्रियनिग्रह तो अध्यात्मशास्त्र और योगकी सबसे मुख्य बात मानी जाती है और वही अब झूठी साबित होती है । इमका उत्तर वादवाला श्लोक यो देता है। आखिर शरीरयात्राके लिये इन्द्रियोकी क्रिया जरूरी है और ज्ञान या विवेकके भी लिये । हाँ, इनके विषयोंके साथ जो रागद्वेष है उनपर जरूर ही नियत्रण चाहिये- राग और द्वेषको ही खत्म करना चाहिये। यह वात वरावर सभव भी है। प्रकृतिके ही गुणोमे सत्त्व ऐसा है कि यदि उसकी प्रगति हो, पूर्ण
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