पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५३९

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५४८ गीता-हृदय विकास हो तो रागद्वेषको मिटा दे और हमें उनके चगुलमें कभी फंसने न दे। वह खतरेसे पहले ही आगाह जो कर देता है। इसीलिये अर्जुनने शुरूमें ही जो कहा था कि मुझे यदि कर्ममें भी लगाते हो, तो लगाओ, मगर हिंसात्मक युद्धमे क्यो खामखा धकेलते हो, उसका भी उत्तर हो जाता है। वादका ३५वा श्लोक यही उत्तर देता है कि यद्यपि युद्ध हिंसात्मक है, तो भी क्षत्रियके लिये और खासकर अर्जुनके लिये तो वह स्वधर्म है, उसका निजी कर्त्तव्य है। अठारहवे अध्यायमें तो साफ ही कहा है कि युद्ध क्षत्रियका स्वाभाविक धर्म है, "क्षात्र कर्म स्वभावजम्” (१८।४३) । इसीलिये "स्वे स्वे कर्मण्यभिरत" (१८।४५) तथा "स्वभावनियत कर्म" (१८६४७) में स्पष्ट कह दिया है कि ऐसे स्वधर्मो एव स्वाभाविक कर्मोके करनेमें पाप और बुराईका तो सवाल ही नहीं। प्रत्युत इन्हीसे कल्याण होता है। "चातुर्वर्ण्य मया सृष्ट" (४११३) का भी यही आशय है। प्रकृति कहिये, या स्वभाव कहिये । वात तो एक ही है। अर्जुनको यही कहा गया है कि स्वधर्मको छोड परधर्ममें जाना खतरनाक है । वह तो “देशी मुर्गी बिलायती वोल"वाली बात हो जायगी। फिर तो ऐसा करनेवाले कहीके न रह जायेंगे।) इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वषो व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तो ह्यस्य परिपन्थिनी ॥३४॥ प्रत्येक इन्द्रियके विषयके साथ राग और द्वेष नियमित रूपसे लगे है। इसलिये उनके वशमें कभी न जाये । क्योकि इस आत्माके वटमार और लुटेरे वही दोनो हैं ।३४॥ श्रेयान्स्वधर्मो विगुण. परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्म निधन श्रेय. परधर्मो भयावहः ॥३५॥ दूसरेके बहुत अच्छी तरह पूरे किये गये धर्मकी अपेक्षा अपना धर्म (देखनेमें) खराब या अधूरा रहनेपर भी कही अच्छा है। (इसलिये)