तीसरा अध्याय ५४६ पने धर्मके पीछे मर मिटना ही अच्छा है। दूसरेका धर्म तो खतरनाक 1३५॥ लेकिन यह तो ग्रामतीरसे देखा जाता है कि लोग गलत रास्तेपर बाते है और अपना कर्तव्य पालन नहीं करते । युद्धकी निन्दा करना नौर इसे बुरा ठहराना यह आम बात है। लोग इससे हिचकते और नागते भी है-वही लोग जिनका यह स्वधर्म है। सभी बातोमे यही देखा आता है कि ग्रामतौरने लोग पाप या कुकर्मकी ही ओर झुकते है। ऐसा बालूम पडता है कि नाहककी मारकाट, निर्दयता, दुराचार-व्यभिचार मिथ्या भाषण आदि ही स्वाभाविक तथा प्राकृतिक चीजे है। जैसे चटाईके कनारेको पकडके मोडनेमे ऐसा होता है कि जबतक दवाव रहता है तभीतक [डी रहती है और ज्योही दवाव हटा कि ज्योकी त्यो हुई। ठीक वैसे ही न और इन्द्रियोपर जबतक दवाव है, कुकर्मसे वचती है । मगर ज्योही बाव हटा कि फिर वही पाप और कुकर्म । कुत्तेकी पूंछकीसी हालत । जबतक दवायो तभीतक सीधी रहती है, नहीं तो फिर टेढीकी टेढी । ना उसका टेढापन या चटाई का सीधापन स्वाभाविक है, वैसे ही, मालूम उता है, वुराई ही इन्द्रियोका स्वभाव है। इसीसे देखते है कि युग- गान्तरमे ऋषि-मुनि, अवतार, पीर-पैगम्बर और औलिया हजारो और नागो हुए। उनने उपदेश भी दिया । मगर ससारमै उसी असत्य, उसी यभिचार, उनी निर्दयता आदिका ही बोलवाला है। मानो कुछ हुआ से नहीं | गोया यही अगली एव अकृत्रिम दाते है और मत्य आदि ही कृत्रिम है। यही नहीं, बडे-बडे ऋषि-मुनि भी कभी न कभी उनमे फंसी ये है जब नमाजके लिये सत्य प्रादि ही आवश्यक है और ठीक भी है गौर जय प्राकृतिक धमाका ही परना जरूरी है, उन्हीको करना ही चे, नो या उलटी वात को होती है, यही वडीनी पहेली अर्जुनके सामन पर है। नीलिये-
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