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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/५६८

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चौथा अध्याय ५७७ अगर न किया जाय तो ये ज्योके त्यो रह जाते है। कोई ऐसी जडी-बूटी, एसी औषधि है जिसे गीताने बताया है अव इन तीनोका दृष्टान्त ले सकते है । हल जोतनेकी बात लीजिये। एक हलवाहा ईमानदारीसे हल चलाता है । यही उसका कर्म है । यह कर्म बना रहेगा जब तक वह मजदूरी या खेती-गृहस्थीके सफल होनेके खयालसे ही यह काम करता रहेगा। मगर ज्योही इन नतीजो या परिणामो-- फलो-की पर्वा उससे जाती रही; फलत. कर्माशक्ति या फलासक्ति छोडके वह हल चलाने लगा; जैसा कि किसीने पकडके जडभरतसे हल चलवाया था । बस वही कर्म अकर्म बन गया । क्योकि पहली-कर्मकी- हालतमे जो उसे डर-भय रहता था या काम बिगडनेका खतरा रहता था वही तो इसे कर्म बनाये हुए था और वही अव जाता रहा । जिससे वह उस कर्मसे बेलाग हो गया। लेकिन ऐसा भी होता है कि हमारे पडोसीसे हमारी कटाकटी चल रही है । पद-पद-पर हम उसे चिढाना और दिक करना चाहते है । ऐसी ही हालतमे उसकी खेती का ऐन मौका बिगड रहा है। हजार कोशिश करके भी वह न तो हल ही पा सकता है और न चलाई सकता है । फलत तिलमिलाया हुआ है । ठीक उसी समय हमने अपना हल उठाया और उसे दिखाके विना जरूरत ही हम किसी खेतमे चलाने लगे। ऐसा भी हो सकता है कि पडोसीकी जैसी ही अपनी जरूरतको पूरा करनेके बजाय हमने उसके किसी प्रचड शत्रुको ही जान-बूझके अपना हल उसके सामने ही दिया। बस, यह हमारा विकर्म या दुष्कर्म हुआ। क्योकि नाहक दूसरेका दिल दुखाना ही उसका लक्ष्य जो है । इसी तरह कर्मके त्यागको भी ले । यदि हमारे सामने किसी गरीब या निर्दोषको कोई जालिम पीटता हो तो उसकी रक्षा करनेके लिये दौड पडना हमारा कर्तव्य है। मगर हम उसे नही करते है। यही कर्मका त्याग हुआ। मगर इसकी तीन हालते होनेसे इसके भी तीन रूप हो जाते ३७ 1