छठा अध्याय ६२६ जिसने मनको जीत लिया है (और इसीलिये) जिसका अन्त करण अत्यन्त शान्त है, उसे शीत-उष्ण, सुख-दुख और मान-अपमानकी दशामे (भी) बराबर समाधिमे परमात्माका ही साक्षात्कार होता रहता है-- उसकी मस्ती बराबर बनी रहती है, चाहे कुछ हो ।७। ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः । युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥८॥ ज्ञान और विज्ञानकी प्राप्तिसे जिसका मन तृप्त है-मस्त है, जो किसी भी दशामे विचलित नहीं होता, जिसकी (सभी) इन्द्रियाँ अपने वशमें है (और इसीलिये) जिसके लिये मिट्टीका ढेला, पत्थर (और) सोना सभी एकसे ही है, ऐसा ही योगी युक्त या योगारूढ कहा जाता है ।। कूट नाम है लोहारकी निहाईका । हजारो लोहे उसपर आके टेढे-सीधे और नष्ट-भ्रष्ट हो जाते है। मगर वह ज्योकी त्यो अचल बनी रहती है। इसीलिये विकार-शून्य और अचलको ही कूटस्थ कहते है- अर्थात् जो कूटकी तरह बना रहे। जाल-फरेबको भी कूट कहते है। ससार का प्रपच ही मायाजाल है और उसमे ही आत्माका रहना है । मगर उनसे उसका स्पर्श नही है । सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु । साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिविशिष्यते ॥६॥ सुहृद्, मित्र, शत्रु, तटस्थ, मध्यस्थ, प्रत्यक्ष-अपकारी, सम्बन्धी, साधु और पापी-सबो-मे जिसकी समबुद्धि है-इनमे किसीकी ओर जो खिंच जाता नही-वही श्रेष्ठ है ।।। अकारण ही जो सबका हित चाहे वह सुहृद् कहा जाता है, परिचय होनेपर जो हित चाहे वह मित्र, जो बुराई करे वह अरि, जो किसीका पक्ष न ले वह उदासीन, जो दोनोका पक्ष लेकर कलह मिटाना चाहे वह मध्यस्थ, जिसके प्रति बहुत ज्यादा जलन हो वह द्वेष्य, जो सम्बन्धके करते i
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६१९
दिखावट