६३० गीता-हृदय - - ही हित चाहे वह बन्चु, जो मबका उपकार करे वह माधु और बुरा काम करनेवाला पापो कहाता है। उदासीन और मध्यम्यका फर्क यही है कि जहां मध्यस्थको दोनो पक्षाको पर्वा होती है तहां उदासीनको किसीकी भी नहीं होती। परि और द्वेष्यमें यहो अन्तर है कि जहाँ द्वेष्यके प्रति दिलमे प्रचड जलन होती है तहाँ अरिके प्रति इमका होना जरूरी नहीं है। इसलिये अरि गन्द व्यापक है। मित्र और बन्धुमे यही फर्क है कि जहाँ वन्धुके साथ घनिष्ठता तयगुदा बात है तहां मियके साथ घनिष्ठता न होते हुए भी परिचय मात्र ही काफी है । मुहृद् स्वभावत परहित चाहना है, चाहे कर सके या न कर सके। मगर साधुका तो यह काम ही है। वह परहित करता ही है । ये दोनो ही बदलेमे कुछ नहीं चाहते। यहाँ तक युक्त, योगारूनु, आत्मज्ञानी या सन्यासीका स्वरूप और लक्षण बताके अप्रत्यक्ष रूपमे यह भी कह दिया कि ऐसा होनेके लिये किस तरहके लोहेके चने चबाने जरूरी है। अब अगले आठ श्लोकोमें उन उपायोको विस्तारके साथ बताते है जिनपर अमल करनेपर ही इन लोहेके चनोके चबानेकी योग्यता होती है। इनमे भी शुरूके पांचमें ध्यान और समाधिके उपाय बताके और छठेमे उसीपर जोर देके शेष दोमें खतरो और नियमोके बारेमे सावधान किया है। उसके वादके छ (१८-२३) श्लोकोमे ध्यान और समाधिमे लगे चित्तकी तौल बताई है कि उसकी क्या हालत समाधिके दान रहती है। क्योकि उसी समय उसे आसानीसे पकड सकते और गलती सुधार सकते है। उस समय लोग पूरे तैयार और सतर्क भी रहते है । यह अभ्यास धीरे-धीरे कैसे शुरू किया जाय और यह कमजोरी और गलती कैसे चटपट पकडी जाके दूर की जाय, यह बात उसके बादके तीन (२४-२६) श्लोकोमें कहके तदनन्तर छे (२७-३२) श्लोकोमे योगारूढ पुरुपका पूरा चित्र खीच दिया है और यह बताया है कि उसकी मनोवृत्ति कैसी होती है। उसके आत्मज्ञान
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