पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६२१

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छठा अध्याय ६३१ या साक्षात्कारका स्वरूप क्या होता है यह बात पुनरपि यहाँ दूसरी बार इन्ही श्लोकोमेंसे दो (२६-३०) मे कही गई है। पहली बार पाँचवे अध्यायमे आई है, यह वही कहा जा चुका है। योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥१०॥ ध्यान करनेवाला सन्यासी निरन्तर एकान्त स्थानमे अकेला ही रहके बुद्धि और मनपर कब्जा रखे हुए, बेफिक्र सारा लवाजिम छोडके ही मनको एकाग्र करनेका यत्न करे ।१० शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः । नात्युच्छितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥११॥ जो न तो बहुत ऊँचा और न बहुत नीचा हो, जिसमे क्रमश कुश, मृगचर्म और वस्त्र एकके ऊपर एक पडे हो और जो हिले-डोले न ऐसा निजी आसन (वहाँ) किसी पवित्र स्थानपर बिछाके 1११॥ तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥१२॥ मन और इन्द्रियोकी बाहरी क्रियानोको रोके हुए मनको एकाग्र करके उसे शुद्ध करनेके ही लिये उसी आसनपर बैठे (तथा) ध्यान (एव) समाधिका अभ्यास करे ।१२। समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सप्रेक्ष्य नासिकाग्नं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिखते स्थितः । मनः सयम्य मच्चित्तो युक्त पासीत मत्परः ॥१४॥ धड, सर और गर्दन तीनो ही सीधे--तने-और निश्चल रखे घबराहट छोडके बैठे, अपनी नासिकाके अग्न भागपर ही दृष्टि जमाये रहे और इधर-उधर न देखे । मनकी बेचैनी बिल्कुल ही न हो, डर-भय