सातवाँ अध्याय ६५१ साक्षात्कार या प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते है। उनके उपदेशक तथा आचार्य तो यह करते नही । क्योकि उन्हें तो पहलेसे ही साक्षात्कार होता है। लेकिन वह शिष्योको, जिन्हे उनने श्रवण, मनन कराया है, इतनी मदद दे सकते है जिससे उनका निदिध्यासन आसानीसे हो सके । इसीको आजकी भाषामे प्रयोग (experiment) कहते है। इससे सुनने और विचारनेवालोको इतनी आसानी हो जाती है कि पीछे यही काम वह खुद भी कर सकते और दूसरोको सिखा सकते है। इस प्रयोगके बिना उन्हे दुसरोको उपदेश देनेकी पूर्ण योग्यता शायद ही हो सके। जिसे पहले कहा था उसीको पीछे कर दिया--कह सुनायेको कर दिखाया। इसपर पहले भी लिखा गया है। सातवेंसे लेकर दसवे और बारहवेंसे लेकर अठारहवे अध्याय तक मननका ही काम किया गया है। हाँ, अठारहवेमे सभी बातोका उप- सहार भी किया है। अधिकाशमे उसे उपसहारका ही अध्याय कहना चाहिये । यो तो उपसहार करनेमे भी पूरा मनन होई जाता है। केवल ग्यारहवे अध्यायमे निदिध्यासनके सहायतार्थ उन्ही बातोका प्रयोग (experiment) करके अर्जुनको साफ-साफ दिखा दिया गया है। आत्मासे जुदा परमात्मा है नही और यह जगत् भी परमात्मासे पृथक् न होके उसीका स्वरूप है, यही बात अर्जुनको उस अध्यायमे प्रत्यक्ष दिखाई गई है। फलत यह प्रयोग नही है तो और है क्या मालूम होता है, किसी प्रयोगशालामे बैठके कोई पक्का जानकार चेलेको प्रयोगके द्वारा चीजे दिखा रहा है। मननकी सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है, सो भी निरन्तर । इसीलिये प्रयोगके बाद भी मनन जारी रखा गया है। यदि मनन न रहे तो सारा प्रयोग बेकार हो जाय और भूल जाय । यह भी भूलना न चाहिये कि श्रवणकी तरह मननके समय भी ज्ञान होता ही है । उसके बिना मनन होगा कैसे ? इसीलिये आगे जो विज्ञानके लिये मननके ?
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