सातवाँ अध्याय यहाँ "इद वक्ष्यामि"का "वक्ष्यामि" पाणिनिके "वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवद्वा” (३।३।१३१)के अनुसार फौरन कहनेके ही- मानीमे बोला गया है। ऐसे मौके पर 'लो, जाता हूँ' आदिके ही अर्थमे "एप गच्छामि, एष गमिष्यामि, इट गमिष्यामि" आदि बोलनेकी पुरानी रीति है। और इसके बाद ही चौथे श्लोकसे वही वात फौरन शुरू भी तो हो गई है। वीचमे जो तीसरा ग्लोक पाया है वह तो इस विज्ञानकी दुर्लभता और कठिनाईको ही बताता है, ताकि उघर पूर्ण रूपसे लोगोका ध्यान आकृष्ट हो सके और हम गौरसे सारी बाते सुन सके, विचार सकें। मनुष्याणा सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये । यततामपि सिद्धाना कश्चिन्मा वेत्ति तत्त्वतः ॥३॥ (एक तो) हजारो आदमियोमे (शायद ही कोई) योगसिद्धि और ज्ञानप्राप्तिके लिये कोशिश करता है (और) योगकी सिद्धिको प्राप्त हुए इन यत्न करनेवालोमे भी (शायद ही) कोई मुझ परमात्माको यथार्थतः जानता-मेरा साक्षात्कार करता है ।३। भूमिरापोऽनलो वायुः ख मनो बुद्धिरेव च । अहकार इतीय मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥४॥ भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहकार, महत्तत्त्व और प्रधान या मूल प्रकृति--इस प्रकार यह मेरी प्रकृति-~-माया--हीके आठ विभाग है । अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृति विद्धि मे पराम् । जीवभूता महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।५।। महाबाह यह लो अपरा या नीचे दर्जेवाली मेरी प्रकृति है । (लेकिन) नने निगली जीवम्पी मेरी उम परा या श्रेष्ठ प्रकृतिको भी तो जान नो, जोस (मम चे) जगत्को गायम रखती है ।।
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