६५४ गीता-हृदय एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय । अह कृत्स्नस्य जगत. प्रभव. प्रलयस्तथा ॥६॥ इन्ही (दोनो प्रकृतियो) से ही सभी पदार्थ बनते है ऐसा निश्चय कर लो। (अन्ततोगत्वा तो इस तरह) मुझसेही सारा संसार पैदा होता है और मुझीमे समा जाता है ।६। मत्तः परतर नान्यत् किंचिदस्ति धनजय । मयि सर्वमिद प्रोत सूत्रे मणिगणा इव ॥७॥ (क्योकि) हे धनजय, मुझसे बडा (तो) कोई हई नही । यह सव कुछ (दृश्य जगत्) मुझमे उसी तरह पिरोया हुआ है जैसे मालाके दाने सूतमे १७ यहाँ चौथे श्लोकका अर्थ समझनेके लिये पूर्व का गुणवाद प्रकरण पढ लेना जरूरी है। वही इसका पूर्ण स्पष्टीकरण मिलेगा। परमात्माके सिवाय इस दृश्य तथा अदृश्य जगत्के मूलमे दो पदार्थ है, जिन्हें जीव और माया या प्रधान कहते है । प्रधानको ही प्रकृति भी कहते है । प्रकृति- का अर्थ है मूल कारण । यहाँ पर जीव और प्रधान दोनोको ही प्रकृति कहा है, जिनमे प्रधान नीचे दर्जेकी और जीवात्मा ऊँचे दर्जेकी है। इन्ही दोसे सारे जगत्का पसारा हुआ है। मगर इन दोनोका भी पसारा अन्तमें ब्रह्म या परमात्मासे ही है। फलत उसके सिवाय और कोई सत्य पदार्थ हई नही। इन दोनोमे जीवात्मा तो परमात्माका रूप ही है। किन्तु प्रकृति, माया या प्रधान अनिर्वचनीय, अनादि और मिथ्या है। इस तरह ब्रह्म-आत्माके अलावे सत्य वस्तु जब कोई हई नहीं तो द्वैत या विभिन्नताका प्रश्न उठता ही कहाँ है ? ये सारी बातें भी गुणवादके ही प्रसगसे वही लिखी है । मालेके दाने और सूतका दृष्टान्त देकर इतना ही कहा है कि जैसे सूतके बिना दाने अलग हो जायेंगे और माला रही न जायगी, साथ ही, जैसे हर दानेके भीतर सूत मौजूद है, ठीक उसी तरह परमात्मा .
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