पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६४७

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सातवाँ अध्याय (और) मूढ है--विवेकशून्य है (और) जिनका ज्ञान मायाने हर लिया है वह तो मुझमे कभी लगते नही ।१५। चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । आत्तों जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥१६॥ हे अर्जुन, हे । भरतर्षभ, (जो) सुकर्मी जन मुझ परमात्मामे लगते है वे चार प्रकारके होते है-धन चाहनेवाले, कष्टमे पडे हुए, ज्ञानकी इच्छावाले और ज्ञानी ।१६। यहाँ यद्यपि श्लोकमे कम दूसरा है तथापि असली क्रम इन चारोका वही है जो हमने लिखा है। श्लोकमे छन्द रचनाके लिये ही उलट-फेर करना पड़ा है। दरअसल भगवानकी ओर मुखातिब होनेवाले भी पहले धन-सम्पत्तिमे ही फंस जाते है, वहीतक रह जाते है। यदि कोई आगे वढा भी तो एकाध भारी सकट आते ही उसीसे त्राण चाहके वही फँस जाता है। हाँ, जो इन दो फन्दोसे पार हो जाते है उनमे पहले तो यही भावना होती है कि मुझे आत्मज्ञान प्राप्त हो । यह ठीक भी है । भटकना तो यह है नही । क्योकि यही असली सीढी है। इसी इच्छासे भगवानकी तरफ जाने और उसमे लग जानेवाले ही पीछे ज्ञानी होते है, जो समस्त जगत्को अपना स्वरूप ही देखते है। इस तरह यदि देखा जाय तो परमात्मा- की ओर जानेवाले सभीके सभी लोग पामरोसे तो अच्छे ही है ।) तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते । प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥१७॥ एक--अद्वत ब्रह्मात्मा-हीमे लीन ज्ञानी उन (चारो) में (भी) श्रेष्ठ है । क्योकि मै ज्ञानीका सबसे प्यारा हूँ और वह भी मेरा सबसे प्यारा है ।१७। आखिर आत्मासे-अपने आपसे बढकर अपना प्यारा होगा कौन ? और ये ब्रह्म एव ज्ञानी तो परस्पर एक दूसरेकी आत्मा होई