गीता-हृदय 1 ६६४ चुके है । वे एक दूसरे से जुदा नही है, पृथक् नही है । एकको हस्ती- सत्ता-दूसरे से जुदा हई नही । ज्ञान के यही मानी है उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । प्रास्थित स हि युक्तात्मामामेवानुत्तमा गतिम् ॥१८॥ (यो तो) सभी अच्छे ही है। (लेकिन) ज्ञानी तो मेरी (अपनी) अात्मा ही है। क्योकि वह मुझीमें मनको जोडता तथा मुझसे बढके दूसरा कुछ भी मानता ही नही ।१८। बहूना जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मा प्रपद्यते । वासुदेव सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥१६॥ बहुत जन्मो (मे यत्न करते-करते तब कही सव) के अन्तमें ज्ञान प्राप्त करके 'यह सब कुछ भगवान ही है' इस प्रकार मुझ परमात्मामें जो लग जाता है वही अत्यन्त दुर्लभ महात्मा है ।१९। लेकिन कोई ऐसा न समझ बैठे कि इस प्रकार चार ही ढगके लोग भगवानकी ओर बढते है, इसीलिये गीताके श्रद्धावाले सिद्धान्तके अनुसार, जिसका प्रा वर्णन पहले ही किया जा चुका है, यह बताना जरूरी हो गया कि और भी लोग है जो घूमघामके भगवानकी ओर जाते है, न कि मीधे । फर्क यही है कि ये चार सीधे जाते है । इसलिये इन्हे वहाँ औरोकी अपेक्षा शीघ्र पहुँचनेका मौका है। वेशक, इन चारोकी अपेक्षा शेप लोग भूले हुए जरूर माने जाने चाहिये । क्योकि वे यह समझते है कि भगवान तो केवल मुक्ति देता है, वाकी पदार्थ तो दूसरे देवता लोग ही दे सकते हैं, देते है । अपनी अनेक प्रकारकी कामनायोके करते वे अन्धे हो जाते है और सोचने लगते है कि भला ये तुच्छ चीजें भगवान ग्या देगे | इसीलिये भटकते भी तो है । क्योकि उन्हें जानना चाहिये था कि जो कुछ भी देना- दिलाना या करना-कराना हो केवल भगवान ही करते है। पौराग ओर नजर करना ठीक वैसा ही है जैसा कुत्तेका खून-मासके लिये मूवी
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