पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६४९

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सातवाँ अध्याय ६६५ हड्डी चबाना। वे बिचारे ऐसा इसीलिये करते है कि गुण-कर्मके अनुसार उनकी प्रकृति ही ऐसी होती है । कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः। तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥२०॥ अनेक प्रकारकी कामनाप्रोके चलते समझ खराब हो जानेसे (बहुतेरे लोग) अपनी-अपनी रुचिके अनुसार विभिन्न देवताप्रोकी शरणमे उन्ही- उन्हीके नियमोके अनुसार जाते है ।२०। यहाँ प्रकृतिका स्वभाव अर्थ है। उसमे दो बाते आती है। एक तो उसीके अनुसार भगवानको छोडके सामान्यत राजस, तामस आदि खयालसे दूसरे देवताओकी ओर झुकते है। दूसरे विशेष रूपसे कौन किस देवताकी ओर झुकेगा इसमे भी उसी प्रकृतिसे पैदा हुई रुचि कारण है। इसपर विशेष प्रकाश पहले ही डाल चुके है । यो यो या यां तनुं भक्तः श्रद्धयाचितुमिच्छति । तस्य तस्याचला श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥२१॥ स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते । लभते च ततः कामान्मयैव विहितान् हितान् ॥२२॥ जो-जो भक्त जिस-जिस देवताकी पूजा श्रद्धासे करना चाहता है उस-उसकी उसी श्रद्धाको मै--परमात्मा --अचल बना देता हूँ (और) वह उसी श्रद्धाके साथ उस (देवता) की आराधना करता भी है। (मगर) उसके बाद अपनी इच्छाके अनुकूल मेरे ही दिये पदार्थोंको पाता है ।२१।२२॥ इन श्लोकोके श्रद्धा और भक्त शब्द महत्त्व रखते है। इन दोनोसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जबतक अपने लक्ष्यमे पूर्ण विश्वासके साथ । सच्चे दिल और ईमानदारीसे कोई काम न करे तबतक सफलता नही मिलती है और अगर ये बाते है तो वह चाहे कुछ भी करे सब ठीक ही है। जो