पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीता-हृदय श्रद्धा-भक्ति भगवानके सम्वन्धमे होती है वही यहाँ भी है । फर्क यही है कि लक्ष्य और रास्ता बदल गया है । लेकिन यदि श्रद्धा-भक्तिमें कमी हो गई तो सब चौपट ही समझिये । तब तो कोई भी लक्ष्य सिद्ध होगा नही । श्रद्धाके अचल होनेके यही मानी है। अन्तवत्तु फलं तेषा तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान्देवयजो याति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥२३॥ (फर्क यही होता है कि) उन नासमझोको जो फल मिलता है वह अचिरस्थायी होता है। (क्योकि) देवताओके पूजक (ज्यासे ज्यादा) देवतागो तक ही पहुंच पाते है । (लेकिन) मेरे भक्त तो मुझ तक भी पहुंच जाते है-मेरा स्वरूप भी हो जाते है ।२३। यहाँ 'मामपि'मे जो अपि शब्द है उससे 'मुझे भी' ऐसा अर्थ हो जाता है। अर्थात् भगवानके भक्त भगवान तक तो पहुंचते ही है । लेकिन दूसरे पदार्थों तक भी उनकी पहुंच होती है उन्हें दूसरे पदार्थ भी प्राप्त होई जाते है । न कि वे भूखे-प्यासे मरते है। इसीलिये कह दिया है कि "योगक्षेम वहाम्यहम्” (६।२२) । “आ” जिज्ञासु" (७।१६)में भी कही दिया है कि भगवानकी भक्ति दूसरे-दूसरे उद्देश्योंसे भी होती है। इसीलिये यहाँ यह कह देना जरूरी था कि मेरी भक्तिसे दूसरी चीजे भी मिलती है । मै तो मिलता ही हूँ। मगर "मियाँकी दौड मस्जिद तक"के अनुसार देवताओके पूजक अधिकसे अधिक उन्ही तक जा सकते है । यदि यह प्रश्न हो कि वह लोग ऐसा क्यो करते है ? सभी भगवानको ही क्यो नही भजते ? क्योकि यहाँ तो दोनो हाथोमें लड्डू है, तो इसका उत्तर पहले ही दे चुके है "हृतज्ञाना" और "प्रकृत्या नियता स्वया" इन्ही शब्दोंसे । उसीका विवेचन आगेके दो श्लोकोमे है । असलम ऐमे लोग चाहते तो है कि भगवानकी ओर चले । चलते भी है । लेकिन समझ तो होती नही। इसीलिये भौतिक वायुमडलमें पैदा होके उसीमे