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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६७०

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६५६ गीता-हृदय मा सोमपा" (६।२०-२१) आदि दो श्लोकोमें यही माना गया है। विपरीत इसके ब्रह्मलोकके बारेमें कुछ और ही धारणा पाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि वहां वडे-बडे तपस्वी, उपासक आदि ही जाते हैं, जिनका ज्ञान पूर्णतया परिपक्व नही हुआ रहता है। छान्दोग्य, वृहदा रण्यक प्रभृति उपनिषदोमें जो पचाग्नि विद्याका प्रकरण है, जिसका विचार हम पहले कर भी चुके है, उसमें भी यही लिखा है कि ऐसे लोगोको कोई मानस या अमानव पुरुष ब्रह्मलोकमे ले जाता है, जहाँसे वे फिर वापिस नही आते, "पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान्गमयति तेषु ब्रह्मलोकेषु परा परावतो वसन्ति तेषा न पुनरावृत्ति" (वृह० ६।२।१५) । इस प्रकार पुरानी परम्परा एव उपनिषदोंके साथ गीताका साफ ही विरोध हो जाता है। इसीलिये पूर्व कथनका स्पष्टीकरण करते हुए यही बात प्रागेके श्लोक स्वीकार करते है । वे मानते है कि ब्रह्मलोक जाके मुक्त होने देर होती है और लम्बा रास्ता तय करना पडता है। इसीलिये उसे साक्षात् मुक्ति न मानके क्रम-मुक्ति कहते है । क्रमश अर्थात् देरसे मुक्ति होती जो है। यही आशय है वहाँसे लौटनेकी बात कहनेका भी। आगे जो उत्तरायण- दक्षिणायन या शुक्ल-कृष्ण मार्ग कहे गये है उनका पूरा विवरण कर्मवादके विवेचनमे दिया जा चुका है। श्लोकोका अर्थ भी वही समझाया गया है । यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्ति चैव योगिनः । प्रयाता यान्ति त काल वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥२३॥ हे भरतर्पभ, योगीजन जिस कालमें मरने पर-प्रयाण करने पर-- नहीं लौटते और लौटते भी है वह काल अभी बताये देता हूँ ।२३। यहाँ भी वक्ष्यामिका अर्थ पहले जैसा ही है, न कि भविष्यकाल । अग्निज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना ॥२४॥