पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६७१

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पाठवाँ अध्याय ६८७ अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायणके छ महीने, इनमें प्रयाण, करनेवाले ब्रह्मके उपासक जन (क्रमश.) ब्रह्मको प्राप्त करते है ।२४। यहाँ 'ब्रह्मविद का अर्थ ब्रह्मज्ञानी न होके ब्रह्मके उपासक और अपूर्ण ज्ञानी ही है । इसीलिये ब्रह्मकी प्राप्तिमे क्रमश लिख दिया है । धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् । तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥२५॥ धूम, रात, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके छ महीने, इनमे प्रयाण करनेवाला योगी चन्द्रमाकी ज्योति तक पहुँचके वापिस आता है ।२५॥ शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते । एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्त्तते पुनः ॥२६॥ इस प्रकार जगत्के ये शुक्ल और कृष्ण मार्ग चिरन्तन माने जाते है। (इनमे) एकसे (जानेपर) आना जाना पुन नही होता है। (मगर) दूसरेसे होता है ।२६ इन श्लोकोमे योगी उसे कहते है जो पूर्ण तत्त्वज्ञानी न हो और । या तो कर्ममार्गमे ही दत्तचित्त हो या उससे आगे बढके ज्ञानकी ओर झुका हो एव तदनुकूल ही उपाय करता हो। ये दोनो रास्ते चिरन्तन है। सृप्टिके साथ ही इनका ताल्लुक है यह बात बखूबी बता चुके है। नैते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन । तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥२७॥ वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफल प्रदिष्टम् । प्रत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥२८॥ हे पार्थ, जो कोई भी योगी इन मार्गोको भीतरी दृप्टिसे देख लेता है वह (कभी फिर)मोहमे नही फंसता । इसीलिये हे अर्जुन, तुम हमेशा ही योगयुक्त हो जाओ। (क्योकि) वेदो (के पढने), यज्ञो (के करने),