गीता-हृदय तपस्यायो और दानोके जितने उत्तम फल कहे गये है, उन सबोंसे बढकर फल इस वातके पूर्ण जानकार योगीको मिलता है। (वह तो) लक्ष्य-स्थान पर ही पहुँच जाता है ।२७।२८॥ इन श्लोकोके योगयुक्त, विदित्वा, जानन् आदि शब्दोंके अर्थो- पर गौर करनेसे योगीका अर्थ है पूर्ण पात्मज्ञानी और आत्मसाक्षा- कारवाला मस्तराम । जिसे ऐसा ज्ञान हो जाता है वही तो हस्तामलककी तरह इन सभी मार्गोको रत्ती-रत्ती देखता है। उसकी दृष्टिके सामने ये सारी चीजे झलक जाती है। भीतर ही भीतर हँसता हुआ वह यह भी सोचता है कि हमने यह क्या पॅवारा फैला दिया है। हम तो मकडी या रेशमके कीडेकी ही तरह अपने ही बनाये तारमें खुद बखुद अवतक फंसे छटपटा रहे थे। पोथी-पत्रा पढके या दूसरोसे सुनके जो भी जानकारी इन मार्गोकी होती है उससे यहां तात्पर्य हई नही। क्योकि उस जानकारीसे मूल स्थान या परब्रह्मकी प्राप्ति कैसे होगी? ऐसा जाननेवाला मोहसे छुटकारा कैसे पा जायेगा ? अगर क्रममुक्ति ही इसका भी मतलब माना जाय तो वह तो कही जा चुकी ही है। फिर दुहरानेका क्या प्रयोजन ? उसमें मोहकी निवृत्तिका भी क्या सवाल ? जब पहले मोहसे छुटकारेकी बात नही कही गई जब कि उसका पूरा निरूपण किया गया है, तो यहाँ कहनेका क्या अवसर ? इसके अलावे हमेशा योगयुक्त होनेका भी तो उपदेश यहाँ दिया गया है। ठीक इसी प्रकार "तस्मात्सर्वेषु कालेषु" (८७)मे भी पाया है और वहाँ तो निर्विवाद रूपसे मनको आत्मामें ही लीन करनेकी वात है, जिसका अर्थ प्रात्मसाक्षात्कार ही है। इसीलिये यहां भी वही अर्थ उचित है। अन्तिम श्लोकमे वेदेषु प्रभृति शब्दोका अर्थ वेदोका पढना भादि मानके हमने वैसा ही लिखा है। केवल वेदोंसे तो कोई पुण्य होता नही, 1
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