पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६७९

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नवा अध्याय ६९५ सभी पदार्थोको कायम रखनेवाली मेरी आत्मा पदार्थोका भरण-पोषण भी करती है (और) उनमे रहती भी नही | जिस तरह सभी जगह फैली विस्तृत हवा हमेशा आकाशमे ही रहती है उसी प्रकार सभी पदार्थ मुझमे है यही समझो ।४।५।६। इन तीन श्लोकोमे जगत्के विस्तारके निरूपणकी भूमिकाका श्रीगणेश होता है, जैसा कि सातवे अध्यायके भी शुरूके सात श्लोकोमे पाया जाता है । वहाँ भी आठवे श्लोकसे विस्तृत निरूपण शुरू होता है । इनमे आखिरी श्लोकमे जो दृष्टान्त दिया है उसका आशय यह है कि वायुकी उत्पत्ति आकाशसे ही मानते है । इसलिये आकाशमे ही हवा रहती भी है। ऐसा ही कहते भी है कि आकागमे हवा है या हई नही, आदि आदि । वह हवा विस्तृत है और चारो ओर फैली है । उसे कोई रोक नही है और न उसके फैलने या चलनेसे आकाशका कुछ भी बिगडता बनता है । पदार्थो- की भी ठीक यही दशा है । परमात्मासे ही बने और सर्वत्र फैले है । टूटते- फूटते भी रहते है और आते-जाते भी। मगर इससे परमात्माका कोई भी बनाव विगाड नही है, वह निर्लेप है । असलमे सूतसे कपडा तैयार होने पर ऐसा होता है कि कपडेके फाडने, जलाने या हटाने पर सूत भी टूटता, जलता या हटता है । कही यही वात परमात्मामे भी न हो, इसी- लिये उसे निर्लेप बताना जरूरी हो गया। सूतने ही कपडेको घर रखा है । उसीसे वह कायम भी है। तव उसकी खराबीसे सूतमे भी खराबीकी वात देखके परमात्मामे भी वही खयाल होना जरूरी था। चार और पाँच श्लोकोमे जो कुछ कहा है वह परस्पर विरोधी जैसा प्रतीत होता है । मगर वह विरोध हट जायगा यदि जगत्को परमात्मामे कल्पित या मायामय मग्न ले। जव मरुभूमिमे सूर्यकी किरणे वालूपर चमकती है तो दूरसे मालूम पडता है कि कोई नदी या पानीकी धारा मरु- भमिमे वह रही है। फिर प्यासा आदमी उधर ही बढता भी है । मगर