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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६८०

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६६६ गीता-हृदय 1 वह ज्यो-ज्यो बढता है धारा भी त्यो-त्यो आगे बढती जाती है। वह धारा मरुभूमिमे है भी और नहीं भी है। यदि उस भूमिमें न होती तो वहाँ प्रतीत क्यो होती ? दूसरी जगह तो नही दीखती है। किन्तु अगर सचमुच होती तो पहुँचनेपर चाहे वह दूर भले ही चली जाती, फिर भी वह भूमि भीगी तो जरूर रहती है । लेकिन सो तो होता नही । पथिक चाहे कितनी ही दूर चला जाय । फिर भी मरुभूमि वही सूखीकी सूखी ही मिलती है । बस, यही हालत इन पदार्थोंकी है । ये भी परमात्मामे मरुभमिकी धाराकी ही तरह है, दीखते है। किन्तु वस्तुत नही है । यहाँपर एक प्रश्न उठता है कि यदि सभी पदार्थ परमात्मासे ही उत्पन्न होते है तो उसमे रहते है कैसे और कहाँ ? और अगर रहते हैं तो इनके करते कितना उपद्रव और तूफान होता होगा | अनन्त प्रकारकी भली-बुरी चीजें है । फिर तो जहाँ ये रहें उसकी दुर्दशा किये बिना छोडेंगी थोडे ही। यह तो दिमागमे आनेकी बात ही नहीं कि योही निर्लेप और निर्विकार छोड दें। यह शका कोई नई नही है। छान्दोग्य उपनिषदके समूचे छठे अध्यायमे आरुणि ऋषिका अपने पुत्र श्वेतकेतुके साथवाला सवाद आत्माके ही बारेमे पाया जाता है। उसके १२वे खडमे श्वेतकेतुकी भी ऐसी शकाके उत्तरमें प्रारुणिने वटवृक्षका बीज मँगवाके फोडनेको कहा था। फोडनेपर पूछा कि देखो तो उसके भीतर है क्या? पुत्रने कहा कि कुछ भी नही। इसपर आरुणिने कहा कि उस बीजके भीतर जहाँ कुछ भी नही देखते हो वही बडेसे बडा वटवृक्ष मौजूद है। तभी तो उसीमसे बाहर निकलता है । बालूके कण, चने या गेहूँके भीतरसे तो कभी वह निकलता पाया गया नही। यदि वटबीजमे न रहनेपर भी वहाँसे वह वृक्ष निकलता, तो गेहूँ, चना या बालूमें भी तो नही ही है। फिर वहाँसे भी क्यो नहीं निकलता ? अगर माने कि उसी नन्हेसे वीजमें वह महान् वृक्ष मौजूद है, तो कैसे कहाँ समाया है ? इतना बडा पेड उस वीजको