पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/६८१

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नवा अध्याय ६९७ बुरी तरह छिन्न क्यो नही कर छोडता ? उसे लापता क्यो नही कर देता? जव इन प्रश्नोका उत्तर श्वेतकेतु दे न सका और आश्चर्यचकित हक्काबक्का- सा रह गया, तो आरुणिने कहा कि पुत्र, तर्क-दलीलोसे ही सर्वत्र काम नही चलता। किन्तु श्रद्धा भी करनी होती है, विश्वास भी करना होता है। इसलिये श्रद्धा करो और कोरी दलीलके पीछे परीशान मत हो-“य वै सोम्यतमणिमान न निभालयसे एतस्य वै सोम्यषोऽणिम्न एव महान न्यग्रोधस्तिष्ठति । श्रद्धत्स्वसोम्य" (६।१२।२-३)। प्रकारान्तरसे गीतामे इसी बातका उत्तर “सर्वभूतानि" आदि आगेके श्लोक देते है । जिसे प्रकृति कहा है उसीको दैवी माया भी तो कही दिया है। वह दिव्य एव अलौकिक शक्ति रखती है, चमत्कार रखती है जो बुद्धिमे समा न सके। पहलेके श्लोकके “योगमैश्वरम्" शब्दोमे जो ईश्वरी योग या चमत्कार--करिश्मा–कहा है वह भी इस मायाका ही चमत्कार है । प्रलयके समय वह अपने करिश्मेसे वटवीजमे वृक्षकी तरह सारे जगत्को अपने भीतर हजम कर लेती है। वहाँ तो पता भी नहीं लगता है कि किस कोनेमे है, या कि नही ही है। फिर सृप्टिके समय महान् वटवृक्षकी तरह सारे जगत्का प्रसार वही प्रकृति खुद करती है । यह वात वरावर चलती रहती है । यदि वह प्रकृति, वह ईश्वरी माया न रहती तो यह बात असभव थी। वटके बीजमे भी उसीका करिश्मा है । सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् । कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥७॥ प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । । भूतनाममिम कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥८॥ हे कौन्तेय, सृष्टिके नाग-प्रलय के समय सभी पदार्थ मेरी प्रकृतिमे ही विलीन हो जाते है । फिर सृप्टिके आरभमे मै उन्हे रचता हूँ। अपनी प्रकृतिका सहारा लेकर ही मै वार-वार इस समूचे पदार्थ-समूह-जगत्-