पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७१३

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७३२ गीता-हृदय चसक आ गई, जैसा कि पहले ही बता चुके है और उसने सोचा कि कही यह स्वर्ण सुअवसर मेरी चुप्पीके ही करते हायसे यो ही चला न जाय, इसीलिये फौरन ही अपनी सफाई देता हुआ और यह कहता हुआ कि आप ही यह बात अपने मुंहसे ही कहे तभी इस विषयके साथ पूर्ण न्याय हो पायेगा- अर्जुन उवाच पर ब्रह्म परं धाम पवित्र परमं भवान् । पुरुष शाश्वत दिव्यमादिदेवमज विभुम् ॥१२॥ पाहुस्त्वामृषयः सर्वे देवपिारदस्तथा । असितो देवलो व्यास. स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥१३॥ अर्जुन कहने लगा-आप ही परब्रह्म, ज्योतियोकी ज्योति और पवित्रसे भी पवित्र है। आपको ही सभी ऋषि (तथा खासकर) देवर्षि नारद, असित, देवल (और) व्यास सनातन दिव्य पुरुष, आदि देव- देवताओके भी देव-~-अजन्मा और सर्वव्यापी बताते है । आप स्वय भी तो मुझसे यही कह रहे है ।१२।१३। सामान्यत ऋषियोको कहके फिर नारद, असित, देवल और व्यासका खासतौरसे नाम लेना यह सूचित करता है कि उन दिनो इनकी ही अधिक धाक थी और सभी लोग आमतौरसे इन्हीकी वातें मानते थे। ऋषिके मानी है ज्ञानी या द्रष्टा सूक्ष्मदर्शी । ऋषियोमे भी जो मनुष्य मां-वापसे जन्म न लेकर ब्रह्मा वगैरहके मानसपुत्र थे वही देवर्षि कहे जाते थे । ऋषि ' लोग ही उस जमानेके नेता, उपदेशक, कानून बनानेवाले (Lawgiver) और रहनुमा थे सर्वमेतदत मन्ये यन्मां वदसि केशव। न हि ते भगवन्यक्ति विदुर्देवा न दानवाः ॥१४॥ 1