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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७१४

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दसवाँ अध्याय ७३३ स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥१५॥ हे केशव, आप जो कुछ मुझे बता रहे है मै उसे सही मानता हूँ। भगवन्, आपकी 'व्यक्ति-आपकी हस्ती–को ठीक-ठीक न तो देवता ही जानते है और न दानव लोग ही । हे पुरुषोत्तम, हे भूतभावन, हे भूतेश, हे देवदेव, हे जगत्पति, आप खुद अपने आप ही अपनेको जानते है ।१४।१५। यहाँ भूतभावनका अर्थ है पदार्थोको पालने तथा कायम रखने- वाला। भूतेशका अर्थ है पदार्थीका शासक और नियामक । जैसे बोल- चालमे कहते है कि आपकी हस्ती, आपकी शख्सियतको कोई नही जानता, आपकी व्यक्तिको भला कौन जाने, आदि आदि, ठीक वैसा ही यहाँ भी है। यहाँ यह कहना, कि मै आपकी सभी बाते सही मानता हूँ, इस बातकी सफाई है कि पहले जैसा सन्देह अब मेरे मनमे रह नही गया, आप विश्वास रखें, फलत आपका उपदेश जरा भी व्यर्थ न जायगा। वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः । याभिविभूतिभिर्लोकानिमास्त्व व्याप्य तिष्ठसि ॥१६॥ (इसलिये) आप अपनी सभी दिव्य विभूतियोको जरूर ही कह सुनाइये-उन्ही विभूतियोको जिनके द्वारा सभी जगहोमे व्याप्त होके सर्वत्र मौजूद है ।१६। कथं विद्यामहं योगिस्त्वा सदा परिचिन्तयन् । केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन् मया ॥१७॥ हे योगिन्, आपका किस प्रकार सदा चिन्तन करते हुए (आपको) जान सकूँगा? और, भगवन्, (खासतौरसे) किन-किन पदार्थों में आपका चिन्तन किया जाना चाहिये ? ।१७। 1