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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७२१

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दसवां अध्याय ७४१ १ स्त्री-समाज उस समय ऊंचा न था। यही कारण है कि "स्त्रियो वैश्या" (९।३२)मे आमतौरसे स्त्रियोको नीच कहा है। ३३वेमे हन्दसमासको ही औरोसे अच्छा कह दिया है। इसमे जितने पद मिले होते है सभीके अर्थ प्रधान होते है। अन्य समासोकी तरह कोई किसीका विशेपण या अप्रधान नही होता है। शायद इसीसे उसे पसन्द किया हो। या इसका नया-नया अन्वेषण होनेसे उस समय यही ज्यादा प्रसिद्ध रहा हो, कौन कहे ? यह ठीक है कि द्वन्द्व तो दुनियाका नियम है और इसे महर्ष स्वीकार करनेवाले ही प्रगति करते है । सभवत यहाँ यही आशय हो भी। ३०वेमे गिननेवालोमे काल या समयको बडा माना है। वैसी गिनती और हिसाव सचमुच कोई नही कर पाता । आप सोये रहे या जगे। उसका हिसाब ठीक चलता रहता है। वह हिसाब पूरा होते ही पदार्थोका पकना, तैयार होना, सूखना, खत्म होना वगैरह होता रहता है । यह काम क्षणभर भी नहीं रकता। मगर ३३वमे जो अक्षय कालकी बात कही गई है वह पहलेकी तरह किसीकी अपेक्षावाला काल नही है। यहाँ तो स्वतत्र स्पसे कालको भगवानका रूप ही माना है। ३६वेमे जो व्यवसाय और सत्त्वकी बात है उनमे व्यवसायका अर्थ है दृढ़ निश्चय तथा तन्मूलक उद्योग । इसी प्रकार सत्त्वका अर्थ सत्त्व गुण भी है और तन्मूलक वल भी। यह वल लडनेवालोका ही है, न कि नातवेकी तरह काम-राग-शून्य । यहां उपमहारमे “यच्चापि सर्व" (१०१३९)मे जो कुछ कहा है सातवेमे “वीज मा" (७।१०) मे भी वही है । ठोक ही है। उपसहार तो सर्वन एक ही होगा न ? "मासाना मार्गगीर्ष” (१०.३५) मे जो मार्गशीर्पको और महीनोसे श्रेष्ठ कहा है उसकी वडी महत्ता है । इससे अन्वेषण करनेवालोने यह