पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७२२

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७४२ गीता-हृदय अर्थ निकाला है कि उस समय या उसके पूर्व सालका प्रारभ मार्गशीर्षस ही होता था। जैसे आज वर्पके प्रारभके बारेमे चैत्रकी स्मृति वनी है और रग, होली आदिके द्वारा उसे याद करते है। बगाली लोग वैशाम्बकी ही स्मृति महीने भर गा-बजाके जगाते है । मेपकी सक्रातिकी स्मृति तो सभी हिन्दू मानते है। वही बगलाका वैशाख है। असलमें यह विषय गहन है । हरेक महीनोंके नाम नक्षत्रोके नामोसे ही बने है । पाणिनीय व्याकरणका “सास्मिन्पोर्णमासीति" (४१२।२१) सूत्र भी यही कहना है। इसके सिवाय सालके ही नाम ममा, वर्प, गरद आदि भी है । जव दिन रात सम या बराबर होते होगे तभी किसी समय वर्पका प्रारभ होता होगा। इसी प्रकार वर्षाके श्रीगणेशके समय या शरद ऋतुमे भी कभी शुरू होता होगा। मगर यह स्वतत्र विषय भविप्यके लिये रहे । ४१वे ग्लोकमे 'विभूतिमत्' शब्द आनेमे विभूतिके मानी केवल पदार्थ न होके चमत्कार-युक्त पदार्थ है। इसीलिये विभूतिमे भी योग आ जाता है । मगर वास्तविक योग आगे है। आगे ग्यारहवे अध्यायके ४७वे श्लोकमे विराट् रूप दिखाके कहेगे भी कि मैंने अपने योगसे, "प्रात्मयोगात्", इसे दिखाया है। इति० विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥१०॥ श्रीम० जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उसका विभृति- योग नामक दसवां अध्याय यही है ।