पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७२९

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ग्यारहवां अध्याय ७४६ सजाये हथियार है, दिव्य मालाये (तथा) वस्त्र सजे है, दिव्य सुगन्धित पदार्थोका लेप लगा है। वह सब तरहसे आश्चर्यमय, दिव्य, अनन्त और विश्व-व्यापक है ।१०।११। दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेयुगपदुत्थिता। यदि भाः सदृशी सा याद्धासस्तस्य महात्मनः ॥१२॥ अगर एक ही साथ आकाशमे हजार सूर्य निकल पडे तो उनका जो प्रकाश हो वही (शायद) उस महात्माकी प्रभाके जैसा हो सकता है ।१२। तत्रैकस्थ जगत्कृत्स्न प्रविभक्तमनेकधा । अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाडवस्तदा ॥१३॥ वहाँ उस समय देवताअोके भी देवता कृष्णके शरीरमे अर्जुनको एक ही जगह समूचा ससार अनेक रूपमे विभक्त दिखाई पडा ।१३। ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः । प्रणम्य शिरसा देव कृतांजलिरभाषत ॥१४॥ अब तो धनजय--अर्जुन के रोगटे खडे हो गये (और) वह आश्चर्यमे डूब गया। (फिर) सर झुका भगवानको प्रणाम करके हाथ जोडे हुए कहने लगा ।१४। अर्जुन उवाच पश्यामि देवास्तव देव देहे सर्वा स्तथा भूतविशेषसंघान् । ब्रह्माणमीश कमलासनस्थमृषी श्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥१५॥ अर्जुन कहने लगा-हे देव, आपके देहके भीतर सभी देवताओको, विभिन्न पदार्थोके सघोको, कमलके आसनपर बैठे सबोके शासक ब्रह्माको, सभी ऋषियोको और अलौकिक सर्पोको देख रहा हूँ।१५। अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्र पश्यामि त्वा सर्वतोऽनतरूपम् । नान्त न मध्य न पुनस्तवादि पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥१६॥