पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७३०

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७५० गीता-हृदय आपके अनेक बाहु, पेट, मुंह (एव) आँखोसे युक्त अनन्तरूपको ही चारो ओर देख रहा हूँ। हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप, न तो आपका अन्त, न आदि और न मध्य ही देख पाता हूँ।१६। किरीटिन गदिन चक्रिण च तेजोराशि सर्वतो दीप्तिमन्तम् । पश्यामि त्वा दुनिरीक्ष्य समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥१७॥ मुकुट, गदा और चक्र धारण किये, तेजकी राशि, चारो ओर प्रकाम फैलाये, जिसपर नजर टिक न सके ऐसा, सब तरफ दहकते सूर्य एव अग्निके समान देदीप्यमान और अपरम्पार प्रापहीको देखता हूँ।१७। त्वमक्षर परम वेदितव्य त्वमस्य विश्वस्य पर निधानम् । त्वमव्यय. शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्व पुरुषो मतो मे ॥१८॥ तुम्ही जानने योग्य परम अक्षर अर्थात् ब्रह्म (हो), तुम्ही इस विश्वके आखिरी आधार (हो), तुम्ही विकारशन्य हो, सनातनधर्मके रक्षक हो (और) मेरे जानते तुम्ही सनातन पुरुष हो ।१८। अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहु शशिसूर्यनेत्रम् । पश्यामि त्वा दीप्तहुताशवक्त्र स्वतेजसा विश्वमिद तपन्तम् ॥१९॥ आदि, मध्य, अन्त–तीनो-से रहित, अनन्त शक्तिशाली, अनन्त वाहुवाले, चन्द्र-सूर्य जिसके नेत्र हो, दहकती आग जैसे जिसके मुख हो और जो अपने तेजसे इस विश्वको तपा रहा हो, मै आपको ऐसा ही देख रहा हूँ।१६। द्यावापृथिव्योरिदमन्तर हि व्याप्त त्वयैकेन दिशश्च सर्वा । दृष्ट्वाद्भुत रूपमुग्न तवेद लोकत्रय प्रव्यथित महात्मन् ॥२०॥ आकाश और जमीनके वीचकी इस जगहको और सभी दिशाग्रोको भी अकेले आप हीने घेर रखा है। इसीलिये, हे महात्मन्, आपके इस उग्र रूपको देखके सारी दुनिया काँप रही है ।२०।