पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ग्यारहवां अध्याय ७५१ 1 अमी हि त्वा सुरसघा विशन्ति केचिद्धीता. प्राजलयो गृणन्ति । स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसघाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि. पुष्कलाभिः॥२१॥ देखिये न, (कुछ) देवताओके झुड आपके भीतर घुसे जा रहे है (और) कुछ मारे डरके हाथ जोडे प्रार्थना कर रहे है। महर्षियो एव सिद्धोके दल (भी) 'स्वस्ति हो की पुकारके साथ बहुत ज्यादा स्तुतियोके द्वारा आपका गुणगान कर रहे है ।२१। रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च । गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसघा वीक्षन्ते त्वा विस्मिताश्चैव सर्वे ॥२२॥ जो भी रुद्र, आदित्य, वसु, साध्य, विश्वदेव, दोनो अश्विनीकुमार, मरुत, पितर तथा गन्धर्वो, यक्षो, एव असुरोके गिरोहके गिरोह है सभी विस्मित होके आप हीको देख रहे है ।२२। रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् । बहूदर बहुदष्ट्राकराल दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥२३॥ हे महावाहु, बहुत मुंहो तथा नेत्रोवाला, अनेक बाहुओ, जघो एव पॉवोसे युक्त, बहुतेरे पेटवाला और बहुतसी डाढोके करते भयकर यह तुम्हारा विशाल रूप देखके लोग घबराये हुए है और मै भी व्यथित हूँ।२३। नभःस्पृश दीप्तमनेकवर्णं ध्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् । दृष्ट्वा हि त्वा प्रत्यथितान्तरात्मा धृति न विदामि शमं च विष्णो॥२४॥ हे विष्णो, आकाश चूमते हुए, चकमक, रगबिरगे, मुंह फैलाये तथा जलते हुए लम्बे नेत्रोसे युक्त आपको देखके मेरी आत्मा दहल उठी है और मुझमे न तो धैर्य है और न चैन ।२४। दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसनिभानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥२५॥ डाढोके करते विकराल (तथा) प्रलयकालकी अग्निके समान (दह-