पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/७३३

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ग्यारहवां अध्याय ७५३ (और) आप अपने जलते मुंहोमे चारो ओरसे सभी लोगोको निगलके जीभ चाट रहे है । हे विष्णो, आपकी उग्न प्रभाएँ अपने तेजसे समस्त जगत्को घेरके खूब तप रही है ।३०। आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥३१॥ हे देवतायोमे श्रेष्ठ, मै आपको प्रणाम करता हूँ, आप प्रसन्न हो (और भला) वताये तो (सही कि) यह उग्र रूपवाले आप है कौन ? मै आदि (पुरुष) आपको जानना चाहता हूँ। क्योकि आपको क्या करना मजूर है यह मै जान नहीं पाता हूँ ।३१॥ श्रीभगवानुवाच कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः । ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥३२॥ श्रीभगवान कहने लगे-मै लोगोका सहार करनेवाला मोटा-ताजा काल हूँ (और) यहाँ लोगोका सहार करनेमे लगा हूँ। (इसीलिये) तुम्हारे बिना भी-तुम कुछ न करो तो भी-परस्पर विरोधी फौजोमें जितने योद्धा मौजूद है (सभी) खत्म होगे ही।३२। तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् क्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥३३॥ इसलिये, हे सव्यसाची (अर्जुन), तुम तैयार हो जानो, यश लूट लो (और) शत्रुको जीतके समृद्धियुक्त राज्य (का सुख) भोगो। मैने तो इन्हे पहले ही मार डाला है । (अतएव) केवल एक बहाना बन जाओ।३३। द्रोण च भीष्मं च जयद्रथं च कणं तथान्यानपि योधवीरान् । मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥३४॥ मेरे हाथो (पहले ही) मरेमराये द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण तथा