७५४ गीता-हृदय अन्यान्य बीरवांकुडोको तुम मार डालो, घबरानो मत (और) लडो । युद्धमे शत्रुओको (जरूर) जीतोगे ।३४॥ सजय उवाच एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताजलिर्वेपमानः किरीटी। जमस्कृत्वा भूया एवाह कृष्णं सगद्गद भीतभीत. प्रणम्य ॥३५॥ (तब) सजय (धृतराष्ट्रसे) वोला-किरीटी (अर्जुन) कृष्णकी यह बात सुनके हाथ जोडे काँपता हुया कृष्णको नमस्कार करके अत्यन्त भयके साथ सैंधे गलेसे पुनरपि कहने लगा ।३५॥ अर्जुन उवाच स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्यां जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च । रक्षासि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसघाः ॥३६॥ अर्जुन बोला--हे हृषीकेश, (यदि) आपके गुणगानसे ससार हप- प्रफुल्लित होता और अनुरागी वनता है (तो) ठीक ही है (और अगर) राक्षस लोग (आपके) डरसे इधर-उधर भागते फिरते है तथा सिद्ध लोगाके सभी सघ (आपका) अभिवादन करते है (तो यह भी उचित ही है)।३६) कस्माच्च ते न नमेरन् महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकरें। अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्पर यत् ॥३७॥ हे महात्मन्, गुरुयोके भी गुरु (और) ब्रह्माके (भी) आदि कारण तुम्हे वे प्रणाम क्यो न करे ? हे अनन्त, हे देवेश, हे जगनिवास, स्यूल (एव) सूक्ष्म (तथा) उससे भी परे जो अक्षर ब्रह्म है वह तुम्ही हो ।३७) त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निघानम् वेत्तासि वेद्य च परं च धाम त्वया तत विश्वमनन्तरूप ॥३॥ तुम आदि देव (और) सनातन पुरुष (हो), तुम्ही इस विश्वके
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