८३० गीता-हृदय . दुनियामें दो पुरुष है, क्षर या विनाशी तथा अक्षर या अविनाशी। सभी जड पदार्थ यानी प्रकृति क्षर है और निर्विकार आत्मा अक्षर । (इन दोनोसे ही) उत्तम पुरुष तो तीसरा है जो परमात्मा कहा जाता है और जो अविनाशी, शासनकर्ता (एव) सारी दुनियाके भीतर प्रवेश करके उसे कायम रखता है। क्योकि मै तो क्षरसे निराला हूँ और अक्षरसे भी उत्तम हूँ। इसीलिये वेदमें और लोकमें भी पुरुषोत्तम विख्यात हूँ।१६।१७।१८। यहाँ ससारमे रहनेवाले पदार्थोंसे ही शुरू करके देखा कि प्रकृति तो पूर्ण या सर्वत्र मौजूद है, व्यापक है, इसीलिये उसे पुरुष कहा । पुरुषका अर्थ ही है पूर्ण या व्यापक । इच भर भी जगह प्रकृति या प्राकृतिक पदार्थोंसे शून्य नही है। यह ठीक है कि ये पदार्थ विनाशी है। फिर आगे वढे और सोचा कि जव ये पदार्थ विनाशी है तो इनके मूलमे कोई होना ही चाहिये । इस प्रकार आत्माका पता लगाया। अब यदि उसे भी विनाशी मानें तो उसका मानना ही बेकार होगा। क्योकि उसका भी मूल कारण ढूंढना होगा और उसे ही आत्मा मानेगे। इस पर ज्यादा तर्क पहले ही लिख चुके है । इस प्रकार किसी न किसीको अविनाशी तो मानना ही होगा जिससे सभी पदार्थ बने । इसीलिये उसे कूटस्थ या निर्विकार कहा । क्योकि कोई पदार्थ विना विकार या खराबीके नाश हो नही सकता। साथ ही, वह भी पुरुष होगा, पूर्ण या व्यापक होगा। नही तो फिर विनाशी पदार्थ रूप पुरुषको वह बनायेगा कैसे ? उसे पुरुषका भी पुरुष होना चाहिये । मगर ऐसा तो कुछ होता नही । इसलिये उसे भी पुरुष ही कह दिया । किन्तु उसका ससर्ग तो विनाशी से ही है, क्षरसे ही है न ? इन्हींके वीच वह रहता जो है, सुखी-दुखी होता जो है । कलालीके पास खडा रहनेवालेकी ही तरह कमसे कम वह वदनाम तो होता ही है। परमात्मामें फलत
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